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आत्मा का दर्शन
२३. संवृतात्मा नवं कर्म, अकर्मा जायते कर्म,
नावत्तेऽनास्रवो यतिः । क्षपयित्वा पुरार्जितम् ॥
२४. अतीतं वर्तमानं च सर्वथा मन्यते त्रायी,
२७८
भविष्यच्चिरकालिकम् । दर्शनावरणान्तकः ॥
२५. अन्तको विचिकित्सायाः, सर्वं जानात्यनीदृशम् । अनीदृशस्य शास्ता हि यत्र तत्र न विद्यते ॥
२६. स्वाख्यातमेतदेवास्ति सत्यमेतत् सदा सत्येन सम्पन्नो, मैत्रीं भूतेषु
सनातनम् । कल्पयेत् ॥
|| व्याख्या ||
सफलता उसे ही वरण करती है जो आस्थावान् और संदेह रहित होता है। संशयशील व्यक्ति कितना ही बुद्धिमान क्यों न हो, वह लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता श्रेष्ठी पुत्र अपने ही अविश्वास से विद्या सिद्धि में असफल रहा, जबकि चोर विद्या साध कर आकाश मार्ग में उड़ गया। 'श्रद्धावान् लभते ज्ञानं' - ज्ञान का विकास पूर्ण विश्वास से ही फलित होता. है। श्रृद्धालु व्यक्ति में जैसी ज्ञान की स्फुरणा होती है वैसी दूसरे में नहीं होती।
२७. वैरी करोति वैराणि, ततो वैरेण रज्यति । पापोपगानि तानीह, दुःखस्पर्शानि चान्तशः ॥
खण्ड ३
संवृत आत्मा वाला यति नए कर्मों का ग्रहण नहीं करता। उसके आसव रुक जाते हैं और वह पूर्व अर्जित कर्मों को क्षीण कर, अकर्मा हो जाता है।
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दर्शनावरणीय कर्म का अंत करने वाला यति चिरकालीन अतीत, वर्तमान और भविष्य को सर्वथा जान लेता है और वह सभी जीवों का रक्षक होता है।
२८. स हि चक्षुर्मनुष्याणां कांक्षामन्तं नयेत यः ।
लुठति चक्रमन्तेन, वहत्यन्तेन च क्षुरः ॥
जो विचिकित्सा-सन्देहों का अंत करने वाला है, वह तत्त्वों को वैसे जानता है, जैसे दूसरा नहीं जान पाता। असाधारण तत्त्व का शास्ता जहां-तहां नहीं मिलता।
२९. धीरा अन्तेन गच्छन्ति, नयन्त्यन्तं ततो भवम् । अन्तं कुर्वन्ति दुःखानां सम्बोधिरतिदुर्लभा ॥
यह स्वाख्यात धर्म है, ' यही सनातन सत्य है कि व्यक्ति सदा सत्य से संपन्न बने और सब जीवों के प्रति मैत्री का व्यवहार करे।
॥ व्याख्या ||
मेरी सबके साथ मैत्री है किसी के साथ विरोध नहीं है, इस मानसिक शुद्धि के बिना मैत्री नहीं होती। जहां कहीं हमारा प्रेम अथवा द्वेष है वहां मैत्री नहीं है। हम शत्रु से सशंकित रहते हैं और मित्रों की चिंता करते हैं। जो विश्व को मित्र मानता है वह अभय होता है समाधि अभय व्यक्ति को प्राप्त होती है। प्रतिशोध की भावना में वैर झलकता है। वैर का परिणाम दुःखमूलक है।
वैरी वैर करता है और वैर करते-करते उसमें रक्त हो जाता है और पापार्जन का हेतु है और अंत में उसका परिणाम दुःखस्पर्शी होता है।
वह मनुष्यों का चक्षु है, जो आकांक्षा का अंत करता है। उस्तरा अंत - धार से चलता है। चक्का अंत-छोर से चलता है।
धीर पुरुष अंत से चलते हैं- हर वस्तु की गहराई में पहुंचते हैं। इसलिए वे भव का अंत पा लेते हैं, दुःखों का अंत करते हैं। इस प्रकार की संबोधि प्राप्त होना अत्यंत दुर्लभ है।
१. जो धर्म सुध्यात और सु-तपस्थित होता है, वही स्वख्यात धर्म है। ठाणं (३/५०७)