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________________ संबोधि. २७९ अ. ११ : आत्ममूलकधर्म-प्रतिपादन ॥ व्याख्या ॥ 'संबुज्झह किं न बुज्झह, संबोही खलु पेच्च दुल्लहा। नो विणमंति राइओ, नो सुलभं पुणरावि जीवियं॥' • महावीर का सन्देश है-संबोधि को प्राप्त करो। संबोधि के लिए ही जीवन उपयोगी है। आगे ऐसा अवसर दुर्लभ है। बीती हुई रात्रियां (क्षण) पुनः लौटकर नहीं आतीं और न यह मनुष्य जीवन भी पुनः सुलभ है। केनोपनिषद् संबोधि की भांति 'परब्रह्म' को जानने का आग्रह करता है। वह कहता है 'इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति, न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः। भूतेषु भूतेषु विचिंत्य धीराः, प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति॥ 'इस मनुष्य जीवन में ही यदि परमात्मा को जान लिया तो बहुत अच्छा है। यदि नहीं जाना तो महान् विनाश है। धीर व्यक्ति प्राणी मात्र में परमात्मा को जानकर अमर हो जाते हैं, इस संसार में पुनःजन्म नहीं लेते।' .. सबोधि जैन दर्शन का प्रिय शब्द है और इस पुस्तक का नाम भी 'संबोधि' है। संबोधि को सुनना ही नहीं है किंतु जीवन में घटित करना है। जैसे मेघ के जीवन में वह घटी, वैसे ही हम सबके जीवन में वह घटित हो सकती है। दुःख से मुक्ति के लिए यह अनिवार्य है। 'आरुग्ण बोहिलाभं, समाहिवरमुत्तमं किंतु'-मुझे आरोग्य, बोधि-लाभ और समाधि की प्राप्ति हो। यह एक विशुद्ध प्रार्थना है। इसके पीछे कोई भौतिक चाह नहीं है। जिस प्रार्थना में भौतिक मांग हो, वह प्रार्थना परमात्मा तक नहीं पहुंचाती। यह तो स्वभाव उपलब्धि की मांग है। साधक अपनी दुर्बलता स्वीकार करता है कि यह मेरे - वश की बात नहीं है। आपका सहास हो तो यह संभव है। वह छोड़ देता है उस अदृश्य शक्ति के हाथों में स्वयं को। संबोधि स्वभाव है। वह व्यक्ति से दूर नहीं है। उसका न होना ही आश्चर्यजनक है, होना कोई आश्चर्यजनक नहीं। स्वभाव कभी अपने केन्द्र से पृथक् नहीं होता। सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्र-ये सभी संबोधि के ही रूप हैं। इसलिए कहा है-धीर पुरुष अंत से चलते हैं। धीर का अर्थ है-जो बुद्धि से सुशोभित है, जिसकी बुद्धि सत्य-शोध की ओर अभिमुख है। बुद्धि यदि यथार्थ गवैषणा में प्रवृत्त न हो तो वह यथार्थ में धीर या बुद्धिमान नहीं है। 'बुद्धेः फलं तत्वविचारणा च' बुद्धि की उपादेयता सत्य की खोज में है। 'धीरा अन्तेन गच्छन्ति' बुद्धिमान् साधक का समग्र व्यवहार अपूर्व ढंग का होता है। वह अब वैसा आचरण, व्यवहार नहीं करता, जैसा अतीत में करता था। 'अंत' का अर्थ है-आगे वैसा जीवन नहीं जीना। जीवन के समस्त पापों का अंत जागकर ही किया जा सकता है। साधना 'जागरिका' है। जीवन का प्रत्येक चरण जागरिकापूर्वक उठे। अन्यथा प्रमाद का नाश कठिन है। जहां प्रमाद होगा वहां दुःख भी होगा। धीर पुरुष होश का सहारा लेकर दुःखों का अन्त कर देते हैं। ३०. यो धर्म शुद्धमाख्याति, प्रतिपूर्णमनीदृशम्। जो शुद्ध परिपूर्ण और अनुपम धर्म का निरूपण करता है और अनीदृशस्य यत्स्थानं, तस्य जन्मकथा कुतः॥ यह अनुपम धर्म जिसमें ठहरता है, उसके पुनर्जन्म की बात कहां? ३१.आत्मगुप्तः सदा दान्तः, छिन्नस्रोता अनास्रवः। जो आत्म-गुप्त है, सदा दान्त है, जिसने कर्म आने के स्रोतों - स धर्म शुद्धमाख्याति, प्रतिपूर्णमनीदृशम्॥ को छिन्न कर दिया है और जो अनासव हो गया है, वह परिपूर्ण अनुपम और शुद्ध धर्म का निरूपण करता है। ॥ व्याख्या ॥ यूनान के एक महान् संत से किसी ने पूछा-सबसे सरल क्या है? उसने कहा-उपदेश देना। दूसरा प्रश्न किया कि सबसे कठिन क्या है। संत ने उत्तर दिया-स्वयं को जानना। और यह बहुत ठीक है। सलाह देना, उपदेश देना-यह प्रत्येक व्यक्ति के लिए सरल है। क्योंकि इसमें स्वयं को कुछ करना नहीं है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने कहा है कोई डुबकी लगाना नहीं चाहता। साधना नहीं, भजन नहीं, विवेक-वैराग्य नहीं, दो-चार बातें सीख ली बस, लगे लेक्चर देने। जो
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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