SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 299
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आत्मा का दर्शन २८० खण्ड-३ व्यक्ति स्वयं जिस विषय 'अ' 'आ' भी नहीं जानता वह भी दूसरों को सलाह देने में तत्पर हो जाता है। 'पिकासो' जैसे चित्रकार दुनिया में विरले हुए हैं। लेकिन लोग सलाह देने उसके पास भी पहुंच जाते थे। उसने एक 'सजेशन बाक्स'-सलाहों की पेटी बना रखी थी, जिसके नीचे कचरे की टोकरी थी। लोग आते। एक कागज पर सलाह लिखकर उस पेटी में डाल देते। पेटी के छेद से वह कागज नीचे रखी कचरे की टोकरी में चला जाता। उपदेशों के प्रभावहीन होने का कारण यह है कि व्यक्ति जैसा कहते हैं वैसा करते नहीं हैं। दूसरा कारण है-जिस विषय को स्वयं जानते नहीं हैं, उसके संबंध में कहते हैं। एक विचारक ने लिखा है-लोग धर्म के संबंध में सुनते हैं, पढ़ते हैं, लिखते हैं, भाषण करते हैं। धर्म के लिए लड़ते. हैं और मरते भी हैं। किन्तु जीते नहीं। धर्म का जीवन में परिचय हो जाये तो फिर लड़ने और मरने का प्रश्न ही खड़ा नहीं होता। धर्म का ह्रास उसके आत्मसात् नहीं होने के कारण ही हुआ है। धर्मग्रंथ स्वयं नहीं बोलते। वे तो अनुभवी पुरुषों के स्वर हैं, चेतना जगत् से उठे हुए शब्द हैं। उसका अर्थ चेतना जगत् में प्रवेश करके ही पाया जा जा सकता है। . धर्म की व्याख्या जब चैतन्य भूमि से हटकर बौद्धिक भूमिका पर आ जाती है तब धर्म शुद्ध नहीं रहता। उसका स्वरूप और कार्य एक होते हुए भी भिन्नता परिलक्षित होती है। उसका एकमात्र कारण है-अनुभूति के स्तर पर धर्म का न होना। यहां जो धर्म-प्रवक्ता के चार लक्षण प्रस्तुत किये हैं वे यह सूचित करते हैं कि उसे कैसा होना चाहिए, जिससे धर्म की ज्योति बुझने न पाये। तथागत कौन होते हैं-इसके संबंध में कहा है-जो जैसा कहता है वैसा करता है-वह तथागत होता है। खुद्दकनिकाय में कहा है-दूसरों को उपदेश करने से पहले पंडित अपने आपको उसके अनुरूप प्रशिक्षित कर ले जिससे कि बाद में क्लेश न उठाना पड़े।' इससे यह स्पष्ट है, उपदेष्टा को केवल उपदेष्टा नहीं होना है किन्तु उस उपदेश को जीना है। धर्म-प्रवक्ता को जिन चार विशिष्ट गुणों से विभूषित होना चाहिए, वे ये हैं १. आत्मगुप्त-(आत्म-रक्षित)-आत्मा की असुरक्षा के हेतु हैं-इन्द्रियों की और मन की चंचलता। इन्द्रियां विषयों का ग्रहण करती हैं और मन को अपना संवाद पहुंचाती हैं। मन अनुरक्ति और विरक्ति, चाहिए और नहीं चाहिए की दौड़धूप में व्यग्र हो उठता है। पूर्वबद्ध संस्कारों के कारण आत्मा की ध्वनि दब जाती है और मन सक्रिय हो उठता है। यह असमाधि है, दुःख है। जिस साधक ने इन्हें ठीक समझकर, जानकर और देखकर समाधिस्थ बना लिया है, शांत बना लिया है, जिसकी इन्द्रियां अब स्वयं के अधीन हो गई हैं, जो अपना मालिक है, वह आत्म-गुप्त होता है। : २. दान्त-शान्त-जो सदा उपशांत रहता है। अशांति का हेतु है-कषाय। कषाय संसार है और अकषाय मुक्ति। कषाय हो और अशांति न हो यह संभव नहीं है। साधना कषाय की शांति के लिए है। 'कषायमुक्ति : किल मुक्तिरेव' कषाय की शांति को मुक्ति कहा है। वक्ता के लिए शांत होना अनिवार्य है। राग-द्वेषयुक्त वक्ता के द्वारा शुद्ध धर्म का निरूपण संभव नहीं है। ३. छिन्नस्रोता-जिसने कर्म आने के मार्गों को नष्ट कर दिया है। इसका एक अर्थ और भी है। संसारानुगामी लोगव्यवहार से जो ऊपर उठ जाता है वह छिन्नस्रोता हो जाता है। एक यथार्थद्रष्टा को लोक-व्यवहार से मुक्त होना आवश्यक है। धर्म के सम्यक् प्रतिपादन में लोक व्यवहार भी एक बाधा है। साधक लोकहित के लिए बोलता है, न कि लोकरंजन के लिए। 'जनरंजनाय' कहकर आचार्य ने अपना पश्चात्ताप प्रकट किया है। धर्म के प्रतिपादन का उद्देश्य होता है-लोगों को सही मार्गदर्शन देना। यह तभी संभव है जबकि साधक सत्य के अतिरिक्त किसी को महत्त्व नहीं देता। सत्य सर्वोपरि है। सत्य के मार्ग में आने-वाली सभी अड़चनों से जो मुक्त हो चुका है वह है-छिन्नस्रोता। ४. अनासव-शाब्दिक परिभाषा की दृष्टि से अनास्रव का अर्थ होता है-पांच आसव-द्वारों से रहित। इसका दूसरा अर्थ मध्यस्थ भी होता है। जो शुभ-अशुभ विचारों में सदा तटस्थ, समत्ववान्, मध्यस्थ रहता है, वह अनास्रव होता है। यहां मध्यस्थ अर्थ अधिक संगत लगता है। धर्म का उपदेष्टा यदि स्थिर न हो तो सत्य के निरूपण में बड़ी कठिनाई पैदा होगी। फिर वह कभी बायें झांकेगा और कभी दाएं। उसे दूसरों पर निर्भर होना होगा। तटस्थ व्यक्ति सदा स्थिर रहता है, न वह इधर झांकता है और न उधर। वह संतुलित रहता है। सत्य का आविर्भाव उसी स्थिति में संभव है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस के शब्दों में लोगों को सिखाना कठिन काम है। भगवान के दर्शन के बाद-यदि किसी को उनका आदेश प्राप्त हो तो वह लोक-शिक्षा (उपदेश) दे सकता है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy