________________
संबोधि
२८१
अ. ११ : आत्ममूलकधर्म-प्रतिपादन
३२. यन्मतं. सर्वसाधूनां, तन्मतं शल्यकर्तनम्। - साधयित्वा च तत्तीर्णा, निःशल्या वतिनां वराः॥
जो सभी साधुओं का मत-इष्ट है, वह मत-निग्रंथ प्रवचन शल्य को काटने वाला है। उसकी साधना कर बहुत से उत्तमव्रती निःशल्य बनकर भव-समुद्र को तर गए।
॥ व्याख्या ॥ शल्य आंतरिक व्रण है। ऊपर की चिकित्सा साध्य है, अंतर की असाध्य है, क्योंकि वह दृश्य नहीं है। शल्य भीतर ही भीतर पलने वाला महान् दुःखदायी और विनाशक व्रण है। यह सूक्ष्म है। इसे पकड़ने के लिए पैनी दृष्टि चाहिए। गहन अंतर्दर्शन के बिना इसको पकड़ पाना कठिन है। साध्य की प्राप्ति में यह बड़ा अमंगलकारी है। साधक को पहले ही क्षण में इससे मुक्त होकर साधना में प्रवेश करना चाहिए। शल्य तीन हैं
१. मायाशल्य-माया का अर्थ है-वक्रता, भ्रांति। वक्र आदमी ही घूमता है, सीधा-सरल नहीं। भ्रांति भी वक्रता में पलती है। सरल व्यक्ति के लिए स्वीकृति और साधना दोनों सरल हैं। उसकी परिणति भी सरल है, किंतु वक्र के लिए कठिन है।
२. निदानशल्य-इसका अर्थ है-वैषयिक वासना का संकल्प। शरीर और इन्द्रिय-विषयों के आकर्षण को यदि साधक नहीं छोड़ पाता तो पग-पग पर उसके जीवन में संघर्ष खड़े हो जाते हैं। इन्द्रियों के लुभावने विषय उसे अपनी ओर खींच लेते हैं। वह जिसके लिए साधना में आया था, उसे भूल जाता है, और विषयों के चंगुल में फंस जाता है। ऐहिक विषयों की पूर्ति असंभव होती है तो भविष्य के सुखों के लिए भीतर ही भीतर अकेले में संरचना कर लेता है और अपने वर्तमान या सुखद साधना-पथ से च्युत होकर नरक में स्वयं को डाल देता है। ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ने पूर्वभव में इसी प्रकार की संरचना से जीवन को दुःखद बना लिया। चित्तमुनि ने जब उसे आर्य-पथ पर चलने की प्रेरणा दी, तब चक्रवर्ती ने कहा-'मैं जानता हूं धर्म को, किंतु कर नहीं सकता। और अधर्म को भी जानता हूं किंतु छोड़ नहीं सकता। यह मेरे अशुभ तीव्रतम संकल्प का परिणाम है।'
३. मिथ्यादर्शनशल्य-बुद्ध ने कहा-'भिक्षुओ! मिथ्यादृष्टि के समान दोषपूर्ण दूसरा धर्म नहीं देखता। अनिष्टकारी सभी धर्मों में मिथ्यादृष्टि सबसे बुरा धर्म है।' बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग में सम्यग्दृष्टि प्रथम है और महावीर के धर्म-दर्शन में भी सम्यग्दर्शन प्रथम है। यह अध्यात्म की रीढ़ है। दृष्टि की मलिनता हटने पर ही यथार्थ का अवबोध होता है। सत्यासत्य का अवबोध सम्यग्दर्शन है। आगे के पथ की सुगमता इसी विवेक पर निर्भर है।
. ३३.पण्डितो वीर्यमासाद्य, निर्घाताय प्रवर्तकम्। पण्डित व्यक्ति कर्म-क्षय के लिए प्रवर्तक वीर्य को प्राप्त धुनीयात् सञ्चितं कर्म, नवं कर्म न वा सृजेत्॥ कर पूर्वकृत कर्म की निर्जरा करता है और नये कर्म का अर्जन
नहीं करता। ३४. एकत्वभावनादेव, निःसङ्गत्वं प्रजायते। एकत्व-भावना से निःसंगता-निर्लिप्तता उत्पन्न होती है।
निःसङ्गो जनमध्येऽपि, स्थितो लेपं न गच्छति॥ निःसंग मनुष्य जनता के बीच रहता हुआ भी लिप्त नहीं होता।
॥ व्याख्या ॥ एक उत्पद्यते तनुमानेक एव विपद्यते।
एक एव हि कर्म चिनुते, सैकिकः फलमषूनुते॥ 'जीव अकेला ही उत्पन्न होता है और अकेला ही मरता है। जीव अकेला ही कर्मों का संचय करता है और अकेला ही उसका फल भोगता है।' यह एकत्व भावना का चिंतन है। इसके अभ्यास से व्यक्ति में निःसंगता पैदा होती है और अपने-आप पर निर्भर रहने की वृत्ति पनपती है। प्रत्येकबुद्ध नमि मिथिला के राजा थे। एक बार वे दाहज्वर से पीड़ित हुए। उपचार चला। रानियां स्वयं चंदन घिस रही थीं। उनके हाथों में पहने हुए कंगन बज रहे थे। उस आवाज से नमि खिन्न हो १. करण वीर्य, क्रियात्मक वीर्य।