________________
आत्मा का दर्शन
૨૮૨
खण्ड-३
गए। कंगन उतार दिए गए। केवल एक-एक कंगन रखा। आवाज बंद हो गई। नमि ने कारण पूछा। मंत्री ने कहा-'सभी कंगन उतार दिये गये हैं। केवल एक-एक कंगन रखा गया है। एक में आवाज नहीं होती।' नमि ने सोचा-'सुख अकेलेपन में है। जहां दो हैं वहां दुःख है।' इस एकत्व-भावना से प्रबुद्ध होकर वे प्रव्रजित हो गये। ३५.न प्रियां कुरुते कस्याप्यप्रियं कुरुते न यः। जो किसी का प्रिय भी नहीं करता और अप्रिय भी नहीं सर्वत्र समतामेति, समाधिस्तस्य जायते॥ करता, सर्वत्र समता का आचरण करता है, उसे समाधि प्राप्त
होती है।
॥ व्याख्या ॥ इस श्लोक में आत्मनिष्ठ व्यक्ति के कर्तव्य का निर्देश है। उसमें राग-द्वेष नहीं होता। उसके लिए 'मेरा' और 'पराया' कुछ नहीं होता। वह प्रवृत्ति करता है, किसी का इष्ट या अनिष्ट करने के लिए नहीं, किन्तु अपना कर्त्तव्य-पालन करने के लिए। उसमें किसी का इष्ट सध सकता है। इष्ट या अनिष्ट प्रवृत्ति का मूल राग-द्वेष है। जो व्यक्ति इनसे प्रेरित होकर प्रवृत्ति करता है, वह सदा पवित्र नहीं रह सकता। जो आत्मनिष्ठ होता है, उसके लिए सब समान हैं। वह सारी प्रवृत्तियां आत्म-साक्षात्कार करने के लिए करता है। यही उसकी आत्म-निष्ठा है। यह सामान्य अवस्था नहीं है। यह ऊंची साधना से प्राप्त होती है। अप्रिय करने की बात हरेक की समझ में आ जाती है, किन्तु प्रिय न करना-यह कुछ अमानवीय तथ्य-सा लगता है, किन्तु भूमिका-भेद से यह भी मान्य होता है। सभी व्यक्तियों के कर्त्तव्य अपनी-अपनी भूमिका से उत्पन्न हैं। अतः उस ऊंची भूमिका पर पहुंचे मनुष्य के कर्त्तव्य भी भिन्न हो जाते हैं। यह समता का परम विकास है। ३६. अशंकितानि शङ्कन्ते शङ्कितेषु शङ्किताः। असंवृत व्यक्ति मुग्ध होते हैं। जो मूढ हैं, उनका मन चंचल असंवृता विमुह्यन्ति, मूढा यान्ति चलं मनः॥ होता है। वे उन विषयों में शंका करते हैं जो शंका के स्थान नहीं
और उन विषयों में शंका नहीं करते, जो शंका के स्थान हैं।
॥ व्याख्या ॥ जिनकी इन्द्रियों और मन का द्वार बाहर की तरफ खुला है, वे असंवृत होते हैं। असंवृत व्यक्ति अमृत, अनश्वर में सदा सशंकित रहता है। उसका जो कुछ परिचय है, वह मृत-नश्वर से है। कुछ समझते हैं, लेकिन जानते हुए भी सशंक में अशंक की भांति हाथ डालते हैं। बुद्ध ने कहा-'नित्य प्रज्वलित इस संसार में कैसा हास्य और आनंद? अंधकार से घिरे हुए लोगो! प्रदीप की खोज क्यों नहीं कर रहे हो?' यह बुद्ध पुरुषों का दर्शन है। उन्हें आग दिखाई दे रही है। लोग जल रहे हैं। किन्तु मनुष्य को यदि आग दिखाई दे तो वह अपने को बचा सकता है। उसे दिखाई दे रही है ठंड। यह उल्टा दर्शन है। इसलिए महावीर ठीक कहते हैं-'वे लोग मूढ़ हैं जो मृत में मुग्ध हो रहे हैं। अशंकित में पैर रखते हुए शंका करते हैं और शंकित स्थानों में अशंकित होकर विहरण करते हैं। अमृत की उपलब्धि के बिना उनकी पीड़ा शांत नहीं हो सकती। अमृत को खोजो, शाश्वत को खोजो, अनश्वर को प्राप्त करो।' ३७.स्वकृतं विद्यते दुःखं, स्वकृतं विद्यते सुखम्। दुःख अपना किया हुआ होता है और सुख भी अपना किया अबोधिनाऽर्जितं दुःखं, बोधिना हि प्रलीयते॥ हुआ होता है। अबोधि से दुःख अर्जित होता है और बोधि से
उसका विलय होता है।
॥ व्याख्या ॥ भगवान् महावीर ने कहा-'अन्नाणी किं काहिइ, किं वा नाहीइ छेयपावगं।'
अज्ञानी को श्रेय और अश्रेय का पता नहीं होता। वह बेचारा है, दया का पात्र है, वह क्या करेगा ? कैसे पार करेगा भवसागर को ? यह करुण का परम वचन है। बुद्ध ने कहा है-'भिक्षुओ! सब मलों में अज्ञान परम मल है। इस मल को धो डालो और पवित्र हो जाओ।' गीता में कहा है-'अज्ञानेनावृतं ज्ञानं, तेन मुह्यन्ति जन्तवः'-प्राणियों का ज्ञान अज्ञान से आच्छन्न है, इसलिए वे मूढ़ होते हैं।