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________________ संबोधि. २८३ अ. ११ : आत्ममूलकधर्म-प्रतिपादन अज्ञान पर सब संतों ने प्रहार किया है। सारा दुःख अज्ञान से अर्जित है। मनुष्य को पता नहीं है कि कैसे वह दुःख का संग्रह कर रहा है। दुःख सबको अप्रिय है। कोई नहीं चाहता है कि दुःख मिले किन्तु आश्चर्य है कि जाने, अनजाने सब दुःख-नरक में उतर रहे हैं। दुःख ने मनुष्य को नहीं पकड़ा है, किन्तु मनुष्य ने ही उसे पकड़ रखा है। जिस दिन यह समझ में आ जाएगा, आदमी उसे छोड़ भी सकेगा। दुःखी व्यक्ति ही दूसरों को सताने का प्रयत्न करता है। महावीर, बुद्ध आदि संतों ने किसी को नहीं सताया। क्योंकि वे परम सुख में थे। जब तक आप दुःखी हैं, दूसरों को कष्ट देने से नहीं चूकेंगे। आध्यात्मिक होने की शर्त है-आप सुखी बन जाएं, दूसरों की चिंता छोड़ दीजिए। सुख उतर आएगा। सुख के लिए सुख का ज्ञान अपेक्षित है। जैसे ही ज्ञान की किरण उतरेगी अनंत जन्मों का संगृहीत दुःख एक क्षण में विदा हो जाएगा। मैं दुःख किसी से लूंगा ही नहीं तो कौन मुझे दुःख देगा? मैं हर क्षण में प्रफुल्लित मुस्कराता रहूंगा। जो कुछ भी मेरे लिए है, वह सब मंगल रूप है।' ऐसे व्यक्ति को कौन दुःखी कर सकता है? ३८.हिंसासूतानि दुःखानि, भयवैरकराणि च। हिंसा से दुःख उत्पन्न होते हैं। वे भय और वैर की वृद्धि करते पश्य-व्याहृतमीक्षस्व, मोहेनाऽपश्यदर्शन'! हैं। मोह के द्वारा अपश्य-दर्शन' बने हुए पुरुष! तू द्रष्टा की वाणी को देख। ॥ व्याख्या ॥ हिंसा का अर्थ है-असत् प्रवृत्ति। वह मानसिक, वाचिक और कायिक-तीन प्रकार की होती है। जब आत्मा असत् प्रवृत्ति में प्रवृत्त होती है, तब अशुभ कर्म-बंध होता है और अशुभ कर्म सभी दुःखों के मूल हैं। अतः हिंसा सभी दुःखों की उत्पादक शक्ति है। इससे भय और वैर बढ़ते रहते हैं। अभय वह है जो अहिंसक है। अहिंसा वैर का उपशमन करती है। ३९. धर्मप्रज्ञापनं यो हि, न्यत्ययेनाध्यवस्यति। जो धर्म के निरूपण को विपरीत रूप से ग्रहण करता है और .. हिंसया मन्यते शाति, स जनो मूढ उच्यते॥ हिंसा से शांति होगी, समस्या का समाधान होगा, ऐसा मानता है, वह मनुष्य मूढ कहलाता है। ॥ व्याख्या ॥ हिंसा से शांति नहीं, शस्त्रों का निर्माण होता है। अहिंसा की आत्मा को जानने वाला व्यक्ति ही हिंसा का नाश कर सकता है। हिंसा की आग कभी हिंसा से बुझ नहीं सकती। संभूम चक्रवर्ती ने ब्राह्मण से वैर लेने के लिए पृथ्वी को ब्राह्मण-हीन कर दिया तो परशुराम ने इक्कीस बार उसे क्षत्रियहीन बनाया। हिंसा प्रतिशोध को जन्म देती है। विवेकवान् व्यक्ति अहिंसा में शांति देखता है, आत्म-स्वभाव की समुपासना में धर्म को देखता है। ४०.असारे नाम संसारे, सारं सत्यं हि केवलम्। इस सारहीन संसार में केवल सत्य ही सार है। जो द्रष्टा हैं, वे . तत् पश्यन्तो हि पश्यन्ति, न पश्यन्ति परे जनाः॥ ही सत्य को देखते हैं। जो द्रष्टा नहीं हैं, वे सत्य को नहीं देख पाते। ॥ व्याख्या ॥ भगवान् ने कहा-'सच्चं लोगम्मि सारभूयं'-लोक में सत्य ही सारभूत है। सत्य क्या है ? इसका उत्तर यही है कि जो वीतराग द्वारा कथित है, वही सत्य है। इसको समझना ही अपने आपको समझना है। जो व्यक्ति सत्य को देखता है वही आत्म-द्रष्टा हो सकता है। जो सत्य को नहीं देखता वह कुछ भी नहीं देखता। सत्य विराट् है। सत्य भगवान् है। सत्य असीम है। इसको परिभाषा में बांधना सहज-सरल नहीं है। ११.अस्तित्वमुच्यते सत्यं, निरपेक्षमिदं भवेत्। सत्य के अनेक अर्थ हैं। अस्तित्व निरपेक्ष सत्य है। सत्य का • सार्वभौमश्च नियमः, अपि सत्यमुदाहृतः॥ एक अर्थ है-सार्वभौम नियम। १,२. अपश्य-न पश्यतीति अपश्यः-जो द्रष्टा नहीं है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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