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________________ आत्मा का दर्शन २८४ खण्ड-३ ४२.पर्याया अपि सत्यं स्याद, इदं सामयिकं भवेत्। यथार्थवचनञ्चापि, सत्यमित्युक्तमहता॥ पर्याय सामयिक सत्य है। यथार्थ वचन को भी सत्य कहा गया है। (युग्मम्) ॥ व्याख्या ॥ सत् शब्द से सत्य की निष्पत्ति हुई है। सत् पदार्थमात्र का धर्म है। सत् का अर्थ है-अस्ति-अस्तित्व। अस्तित्व ही.' सत्य है। इस जगत में प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व है या अस्तित्व होने के कारण पदार्थ है। अस्तित्व के अभाव में कोई पदार्थ नहीं होता। 'नासतो विद्यते भावो, नाभावो विद्यते सतः' असत् पदार्थ नहीं होता और सत् अपदार्थ नहीं होता यह समीचीन व्याख्या है। इस असार संसार में सार सत्य-अस्तित्व है। 'सच्चं लोयंमि सारभूयं सत्य ही इस श्लोक में सारभूत है, यह घोषणा द्रष्टा-पुरुषों की है। क्योंकि सत्य का दर्शन उन्हें ही होता है या वे ही सत्य का दर्शन करते हैं। अद्रष्टा व्यक्ति सत्य का दर्शन नहीं कर सकता। इससे यह फलित होता है कि सत्य को देखना है तो द्रष्टा बनो। द्रष्टा बनने का तात्पर्य है, अपने को देखना, जो स्वयं को देखता है वही सत्य को देखता है। अपने अस्तित्व दर्शन के साथ-साथ सबका अस्तित्व प्रकट हो जाता है। अस्तित्व से भिन्न कुछ है ही नहीं। सत्य की यह परिभाषा निरपेक्ष है, शुद्ध है, पूर्ण है और शाश्वतिक है। अन्य परिभाषाएं उसी से जुड़ी हुई हैं। सार्वभौम नियम को भी सत्य कहते हैं। चेतनत्व चेतन का नियम है और अचेतनत्व अचेतन का। दोनों का कभी मिश्रण नहीं होता। आत्मा अनात्मा नहीं होता और अनात्मा आत्मा नहीं होता। पदार्थ में अन्य अपनी स्वभावगत विशिष्टताएं होती हैं, वे सब सत्य हैं। उत्पत्ति और विनाश का भी अपना नियम है। यह प्रत्येक पदार्थ के साथ है, इस सत्य को भी नकारा नहीं जा सकता है। अवस्थाओं के परिवर्तन से पदार्थ में परिवर्तन आता है, यह भी सत्य है। किन्तु यह शाश्वतिक नहीं, सामयिक है। जीव की विविध योनियों में विविध शरीरों के आधार पर भिन्न-भिन्न नामों की परिकल्पना। ये उनकी पर्यायगत अवस्थाएं हैं। अंगूठी सोने की है तो चैन भी सोने की है, कड़ा भी सोने का है-स्वर्णत्व अस्तित्व है। यह उनकी विविध पर्यायें हैं। पर्याय की दृष्टि से ये सामयिक-व्यावहारिक सत्य है। ऐसे ही दृश्य जगत के जितने स्वरूप हैं वे सब उन-उन पुद्गलों की अवस्थाएं हैं। नाम-रूप संसार की सत्यता सामयिक है, यह हमारे ध्यान में रहे। यथार्थ वाक् के रूप में जो सत्य है, हमारा परिचय अधिकांश इसी से है। सत्यवादी हरिश्चंद्र की ख्याति का कारण भी यही है। युधिष्ठिर का रथ जो अधर में रहता था, उसका हेतु भी सत्य-वचन था। समग्ररूप में इसकी आराधना भी उसी पूर्ण सत्य की प्राप्ति का निमित्त बनती है। तीर्थंकरों, आप्तपुरुषों, प्रामाणिक व्यक्तियों का 'यथावादी' एक विशिष्ट गुण होता है। महात्मा गांधी ने कहा-हंसी-मजाक में भी असत्य-अयथार्थ भाषण नहीं करना चाहिए। निःसन्देह सत्य की साधना 'असिधारा' व्रत है। सत्य बोध में साधक को इन समस्त तथ्यों पर चिंतन करना चाहिए। ४३. सिंह यथा क्षुद्रमृगाश्चरन्तः, जैसे चरते हुए छोटे पशु सिंह से डरकर दूर रहते हैं, इसी चरन्ति दूरं परिशङ्कमानाः। प्रकार मतिमान् पुरुष धर्म को समझकर दूर से ही पाप का वर्जन समीक्ष्य धर्म मतिमान् मनुष्यो, करे। दूरेण पापं परिवर्जयेच्च॥ ॥ व्याख्या ॥ पाप का अर्थ है-अशुभ प्रवृत्ति। जिस प्रवृत्ति से आत्मा का हनन होता है, वह पाप है। पाप त्याज्य है। उसके स्वरूप को पहचानकर जो व्यक्ति उससे दूर हटता है, वह धर्म के निकट चला जाता है। जो व्यक्ति आत्म-धर्म समझकर पाप से बचते हैं, वे बहुत शीघ्र धर्म के क्षेत्र में प्रवेश पा जाते हैं और जो लज्जावश या भयवश पाप से बचते हैं, वे समय आने पर स्खलित हो जाते हैं और धर्म में प्रवेश सुलभता से नहीं पा सकते। जो दिन में या रात में, अकेले में या समुदाय में, सोते हुए या जागते हुए कभी पाप में प्रवृत्त नहीं होता, वह महान् है और वही आत्मनिष्ठ हो सकता है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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