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________________ संबोधि. २८५ अ. ११ : आत्ममूलकधर्म-प्रतिपादन १४. यदा यदा हि लोकेऽस्मिन्, ग्लानिधर्मस्य जायते। इस संसार में जब-जब धर्म की ग्लानि होती है, तब-तब _ तदा तदा मनुष्याणां, ग्लानिं यात्यात्मनो बलम्॥ मनुष्यों का आत्मबल ग्लान-हीन हो जाता है। ॥ व्याख्या ॥ आत्मबल के समक्ष भौतिकबल नगण्य है। भौतिक शक्ति-संपन्न व्यक्ति कितना ही पराक्रमी हो, किन्तु दूसरों से सदा भयभीत रहता है। जिस हिटलर के नाम से विश्व कांपता था वह हिटलर अपने भीतर स्वयं कितना प्रकंपित था, यह आज स्पष्ट हो चुका है। हिटलर एक कमरे में सो नहीं सकता था। शादी भी मरने के कुछ समय पूर्व की थी। पत्नी पर विश्वास नहीं। निजी डॉक्टरों ने कहा कि वह अनेक बीमारियों से ग्रस्त था। बहुत बार बाहर जाने के लिए भी अपनी शक्ल का दूसरा नकली व्यक्ति भेजता था। प्रतिक्षण भयभीत था। क्या इसे वीरत्व कहा जा सकता है ? अस्तित्व की दिशा में जो व्यक्ति कदम उठाता है उसका आत्मबल क्रमशः वर्धमान होता रहता है। उसके पास चाहे शरीर-बल इतना न भी हो किन्तु आत्म-बल परिपूर्ण होता है। वह कांपता नहीं रहता। वह मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता है। भय जीवनैषणा के कारण है। जब जीवननैषणा ही नहीं रहती तब भय किसका? आत्मबल की क्षीणता का कारण है-धर्म-अस्तित्व के सम्यग् अवबोध का अभाव। धर्म ने कभी मनुष्य को भीरु नहीं बनाया। सही धार्मिक व्यक्ति भीरु हो भी नहीं सकता। जहां जाने से लोग डरते थे वहां महावीर महाविषधर चंडकौशिक के निवासस्थल पर जाकर ध्यानस्थ खड़े हो जाते हैं। बुद्ध 'अंगुलिमाल' के सामने उपस्थित होते हैं। महावीर का श्रावक सुदर्शन 'अर्जुनमाली' को बिना किसी शस्त्रास्त्र के परास्त कर उसे महावीर के चरणों में उपस्थित कर देता है। धर्म से जिस 'आत्मशक्ति' का जागरण होता है वैसा जागरण और किसी से नहीं होता। धर्म के प्रति उदासीन होने का अर्थ है-स्वयं के प्रति उदासीन होना। धर्म की क्षीणता में आत्मशक्ति की क्षीणता अनिवार्य है। मेघः प्राह १५. असतो वारयन्नित्यं, ध्रुवे सत्ये प्रवर्तनम्। धर्मो जागर्ति तेजस्वी, तस्य ग्लानिः कुतो भवेत्॥ मेघ ने कहा-धर्म मनुष्यों को असत् कार्य करने से रोकता है और उन्हें सदा सत्य में प्रवृत्त करता है। धर्म तेजस्वी है और सदा जागृत रहता है, ऐसी स्थिति में धर्म की ग्लानि कैसे हो सकती हैं? भगवान् प्राह १६.दृष्टिः सम्यक्त्वमाप्नोति, ज्ञानं सत्यसमन्वितम्। आचारोऽपि समीचीनः, तदा धर्मः प्रवधत॥ जब दृष्टि सम्यक् होती है, ज्ञान सही होता है और आचार समीचीन होता है, तब धर्म बढ़ता है। १७. दृष्टिविपर्ययं याति, ज्ञानमेति विपर्ययम्। जब दृष्टि, ज्ञान और आचार विपरीत होते हैं, तब धर्म की आचारोऽपि विपर्यस्तः, तदा धर्मः प्रहीयते॥ हानि होती है। १८. पालिर्जलस्य रक्षार्थ, तस्याः रक्षा प्रवर्धते। । जलाभावो न चिन्त्यः स्यात्, तदा कृषिः प्रशुष्यति॥ पाल पानी की सुरक्षा के लिए होती है। जब पाल की सुरक्षा मुख्य बन जाती है और जल का अभाव चिंतन का विषय नहीं रहता, तब कृषि सूख जाती है। १९.वाटिर्धान्यस्य रक्षार्थ, तस्याः रक्षा प्रवर्धते। धान्याभावो न चिन्त्यः स्यात्, तदा कृषिर्विहीयते॥ बाड़ अनाज की सुरक्षा के लिए होती है। जब बाड़ की सुरक्षा ही मुख्य बन जाती है और अनाज का अभाव चिंतन का विषय नहीं रहता, तब कृषि क्षीण हो जाती है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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