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________________ आत्मा का दर्शन ४२६ खण्ड-४ लगे-हम गणना करने योग्य, तोलने योग्य, मापने योग्य और परीक्षा करने योग्य वस्तुओं को लेकर नौका द्वारा लवण समुद्र (हिन्द महासागर) की यात्रा करें। सबने एकमत से इस प्रस्ताव को स्वीकार किया। विक्रेय वस्तुओं का संग्रह किया। गाड़ियों में भरा। शुभ तिथि, करण, नक्षत्र और मुहूर्त में विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवाया। अपने मित्रों, ज्ञातिजनों, स्वजनों, संबंधियों और कौटुम्बिकों को प्रीतिभोज दिया। भोजन के बाद उन सबसे अपनी यात्रा के विषय में अनुमति लेकर वाहन तैयार किये। नावावाणियगाणं अण्णया कयाइ एगयओ सहियाणं इमेयारूवे मिहोकहा समुल्लावे समुप्पज्जित्था- सेयं खलु अम्हं गणिमं च धरिमं च मेज्जं च पारिच्छेज्जं च भंडगं गहाय लवणसमुई पोयवहणेणं ओगाहित्तए त्ति कटु अण्णमण्णस्स एयमलैं पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता.... भंडगं गेण्हंति, गेण्हित्ता...सगडी-सागडियं भरेंति। सोहणंसि तिहि-करण-नक्खत्त-मुहृत्तंसि विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेंति, उवक्खडावेत्ता मित्तनाइ-नियग सयण-संबंधि- परिजणं भोयणवेलाए भुंजावेंति, भुंजावेत्ता मित्तनाइ-नियग-सयण-संबंधि-परिजणं आपुच्छंति, आपुच्छित्ता सगडीसागडियं जोयंति।। चंपाए नयरीए मज्झंमज्झेणं निग्गच्छंति, निग्गच्छित्ता जेणेव गंभीरए पोयपट्टणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सगडी-सागडियं मोयंति, पोयवहणं सज्जेंति, .....भंडगस्स पोयवहणं भरेंति, तंदुलाण य समियस्स य तेल्लस्स य घयस्स य गुलस्स य गोरसस्स य उदगस्स य भायणाण य ओसहाण य भेसज्जाण य तणस्स य कट्ठस्स य आवरणाण य पहरणाण य अण्णेसिं च बहूणं पोयवहणपाउग्गाणं दव्वाणं पोयवहणं भरेंति। तए णं तेसिं अरहण्णग-पामोक्खाणं बहूणं संजत्ता-नावावाणियगाणं मित्त-नाइ-नियग-सयण- संबंधि-परियणा ताहिं इठाहिं वग्गृहिं अभिनंदंता य अभिसंथुणमाणा य एवं वयासीअज्ज! ताय! भाय! माउल! भाइणेज्ज! भगवया समुद्देणं अभिरक्खिज्जमाणा-अभिरक्खिज्जमाणा चिरं जीवह, भदं च भे, पुणरवि लद्धढे कयकज्जे अणहसमग्गे नियगं घरं हव्वमागए पासामो त्ति कटु ताहिं सोमाहिं निद्धाहिं दीहाहिं सप्पिवासाहिं पप्पुयाहिं दिट्ठीहिं निरिक्खमाणा मुहत्तंमेत्तं संचिट्ठति। तओ समाणिएसु पुप्फबलिकम्मेसु दिन्नेसु सरस- रत्त-चंदण-दहर-पंचंगुलितलेसु, अणुक्खित्तंसि धूवंसि, पूइएसु समुहवाएसु, संसारियासु वलयासु, चम्पानगरी के बीचोंबीच होकर वे गंभीरक पोत-पत्तन पहुंचे। गाड़ियों को खाली कर नौका तैयार की। विक्रेय . वस्तुएं भरने लगे। चावल, गेहूं का आटा, तेल, घी, गुड़, दूध, दही, पानी, बर्तन, औषध, भैषज्य, तृण, काष्ठ, कपड़े, शस्त्र आदि अनेक प्रकार की वस्तुओं से नौका को भरा। अर्हन्नक आदि पोतवणिकों के मित्र और परिजन इष्ट वाणी से उनका अभिनंदन करते हुए बोले हे दादा! हे तात! हे भ्रात! हे मातुल! हे भागिनेय! भगवान् समुद्र के संरक्षण में आप चिरंजीवी हों। आपका कल्याण हो। आप अपने उद्देश्य में सफल हो शीघ्र घर लौटें। यही हमारी मंगल कामना है। सौम्य, स्नेहिल, खुली, प्यासी और अश्रुपूरित आंखों से उन्हें निहारते हुए वे मुहूर्त भर वहीं खड़े रहे। सामुद्रिक यात्रियों ने अपने-अपने कुलदेव की पूजाअर्चना की। हथेली से सरस चंदन के छापे लगाए। समुद्रवात-समुद्र के अधिष्ठायक देव का पूजन किया। धूप
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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