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________________ प्रायोगिक दर्शन ४२७ अ. २ : सम्यग्दर्शन ऊसिएसु सिएसु झयग्गेसु, पड्डुप्पवाइएसु तूरेसु खेया। पतवारें उचित स्थान में नियोजित कीं। श्वेत जइएसु सव्वसउणेसु, गहिएसु रायवरसासणेसु पताकाओं के ध्वजाग्र ऊपर उठे। वाद्यकला में निष्णात महया उक्किट्ठ-सीहनाय-बोल-कलकलरवेणं व्यक्यिों द्वारा बाजे बजाए गए। विजय सूचक सभी शकुन पक्खुभियमहासमुहरवभूयं पिव मेइणिं करेमाणा हए। ऐसे मंगल क्षणों में समुद्र यात्रा के लिए एगदिसिं एगाभिमुहा अरहण्णगपामोक्खा संजत्ता- राजाज्ञा-पारपत्र प्राप्त कर एक दिशा एवं एक लक्ष्य की नावाणियगा नावाए दुरूढा। ओर अभिमुख हुए। वे पोतवणिक तरंगों से क्षुब्ध महासागर के गरिव की भांति विदाई और मंगल कामनाओं के स्वरों से पृथ्वी को अनुगुंजित करते हुए नौका पर आरूढ़ हुए। तओ पुस्समाणवो वक्कमुदाहु-हं भो ! सव्वेसिमेव मंगल पाठाकों ने मंगल पाठ पढ़ा-हे समुद्रयात्रियो! भे अत्यसिद्धी, उवठियाई कल्लाणाई, पडिहयाइं आप सबको अर्थलाभ हो। कल्याण उपस्थित है। कोई सव्वपावाई, जुत्तो 'पूसो, विजओ मुहत्तो अयं दोषपूर्ण योग नहीं है। इस समय चन्द्र के साथ पुष्य नक्षत्र देसकालो। का योग है। विजय मुहर्त है। यह देश-काल उपयुक्त है समुद्र यात्रा के लिए। ताओ पुस्समाणवेणं वक्कमुदाहिए हट्ठतुट्ठा मंगलपाठकों का आशीर्वाद प्राप्त कर कर्णधार (नौ कण्णधार-कुच्छिधार-गन्भिज्ज-संजत्ता-नावावा. चालक), कुक्षिधार (नौका के पार्श्वभाग में नियुक्त णियगा वावारिंसु, तं नावं पुण्णुच्छंगं पुण्णमुहिं पतवार चालक), कर्मचारी और पोतवणिक अपने-अपने बंधणेहिंतो मुंचंति। कार्यों में संलग्न हो गए। चालकों ने नौका का लंगर खोल दिया। तए णं सा नावा विमुक्कबंधणा पवणबल- बंधनमुक्त, वायुप्रेरित, उन्नत पाल वाली वह नौका समाहया ऊसियसिया विततपक्खा इव गरुलजुवई पंख फैलाए गरुड़ युवती जैसी लग रही थी। गंगा की गंगासलिल-तिक्खसोयवेगेहिं संखुब्भमाणी- तीक्ष्ण धाराओं के वेग से पुनः पुनः संक्षुब्ध होती, संखुब्भमाणी उम्मीतरंग मालासहस्साइं टकराती हजारों-हजारों ऊर्मियों और तरंगों को चीरती वह समइच्छमाणी-समइच्छमाणी कइवएहिं अहोरत्तेहिं कुछ ही दिनों में लवणसमुद्र के सैकड़ों योजनों के पार लवणसमुई अणेगाइं जोयणसयाइं ओगाढा। चली गई। तए णं तेसिं अरहण्णगपामोक्खाणं संजत्ता- समुद्र यात्रा में अर्हन्नक आदि पोतवणिकों के समक्ष नावावाणियगाणं लवणसमुहं अणेगाइं जोयणसयाइं सैकड़ों बाधाएं उपस्थित हुईं-अकाल में मेघों का गर्जना, ओगाढाणं समाणाणं बहूइं उप्पाइयसयाइं बिजली का कौंधना और कुतूहलप्रिय देवों द्वारा बार-बार पाउब्भूयाई, तं जहा-अकाले गज्जिए अकाले आकाश में नर्तन करना। विज्जुए अकाले थणियसद्दे अभिक्खणंअभिक्खणं आगासे देवयाओ नच्चंति। तए णं ते अरहण्णगवज्जा संजत्ता-नावावाणियगा उस समय अर्हन्नक को छोड़ सभी पोतवणिकों ने एक एगं च णं महं तालपिसायं पासंति...पासित्ता विशालकाय तालपिशाच को देखा। उसे देखकर सभी भीया...अण्णमण्णस्स कायं समतुरंगेमाणा- अत्यंत उद्विग्न और भयाक्रांत हो गए। भय से एक दूसरे समतुरंगेमाणा बहूणं इंदाण य खंदाण य रुहाण य के शरीर का आश्लेष करते हुए अपने-अपने इष्ट सिवाण य वेसमणाण य नागाण य भूयाण य देव-इन्द्र, स्कन्द, रुद्र, शिव, वैश्रवण, नाग, भूत, यक्ष, जक्खाण य अज्ज-कोट्टकिरियाण य बहणि आर्या एवं कोट्टक्रिया (दुर्गा) की मनौतियां करने लगे।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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