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आत्मा का दर्शन
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उवाइयसयाणि उवाइमाणा चिट्ठेति ।
तए णं से अरहणए समणोवासए तं दिव्वं पिसायरूवं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता अभीए अत्थे अचलिए असंभंते अणाउले अणुव्विग्गे अभिण्णमुहरागनयणवण्णे अदीण-विमण माणसे पोयवहणस्स एगदेसंसि वत्थंतेणं भूमिं पमज्जइ, पमज्जित्ता ठाणं ठाइ, ठाइत्ता करयल परिग्गहियं सिरसावत्तं अत्थए अंजलिं कट्टु एवं वयासी - नमोत्थु णं अरहंताणं भगवंताणं... जइ णं हं तो उवसग्गाओ मंचामि तो मे कप्पइ पारित्तए, अह णं एत्तो उवसग्गाओ न मुंचामि तो मे तहा पच्चक्खाएयव्वे ति कट्टु सागारं भत्तं पच्चक्खाइ । तए णं से पिसायरूवे जेणेव अरहण्णगे समणोवासए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अरहणगं एवं वयासी- हंभो अरहण्णगा ! अपत्थियपत्थिया ! दुरंत-पंत- लक्खणा! हीणसिरि-हिरि - धिइ कित्तिपुण्ण चाउहसिया ! परिवज्जिया ! नो खलु कप्पर तव सीलं.... चालित्तए ..... । तं जइ णं तुमं सीलं..... न चालेसि ....तो ते अहं एयं पोयवहणं दोहिं अंगुलियाहिं गेहामि, गेण्हित्ता सत्तट्ठतलप्पमाणमेत्ताइं उड्ढ वेहासं उव्विहामि अंतोजलंसि निव्वोलेमि, जेणं तुमं अट्ट- दुहट्ट-वसट्ठे असामाहिपत्ते अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्ज्सि ।
तणं से अरहणगे समणोवासए तं देवं मणसा चेव एवं वयासी- अहं णं देवाणुप्पिया ! अरहण्णए नामं समोवास अहिगयजीवाजीवे । नो खलु अहं सक्के के देवेण वा दाणवेण वा जक्खेण वा रक्खसेण वा किन्नरेण वा किंपुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्त..... । तुमं णं जा सद्धा तं करेहि त्ति कट्टु...... धम्मज्झाणोवगए विहर |
तए णं से दिव्वे पिसायरूवे अरहण्णगं समणोवासगं दोच्चंपि तच्चंपि एवं वयासी - हंभो अरहणगा! जावधम्मज्झाणोदगए विहरइ | तए णं से दिव्वे पिसायरूवे अरहण्णगं धम्मज्झाणेवयं पासइ, पासित्ता बलियतरागं
खण्ड-४
अर्हन्त्रक श्रमणोपासक ने उस दिव्य पिशाच को अपनी ओर आते देखा। उसे देख वह न भयभीत हुआ, न घबराया और न आकुल व्याकुल हुआ। यहां तक कि उसके चेहरे का रंग भी नहीं बदला। उसने अदीन और शांत मन से नौका के एक भाग का वस्त्रखंड से प्रमार्जन किया और कायोत्सर्ग में स्थित हो गया। बद्धांजलि - प्रदक्षिणा की ओर अंजलि को मस्तक पर टिकाकर बोला- अर्हत् भगवान को मेरा नमस्कार हो। मैं अपना कायोत्सर्ग तभी पूरा करूंगा, जब यह उपद्रव टल जाएगा। अन्यथा मैं अन्न जल ग्रहण नहीं करूंगा। इस प्रकार उसने साकार - सविकल्प अनशन स्वीकार किया।
दिव्य पिशाच अर्हनक श्रमणोपासक के पास आया और कहने लगा- अर्हन्नक! अपने अहित को निमंत्रण देने वाले! अशुभ लक्षण वाले ! अंधेरी अमावस को जनमे ! श्री, लज्जा, धृति और कीर्ति से शून्य ! तू अपने संकल्प के शील आदि से विचलित नहीं हो सकता, पर अनुसार मैं चेतावनी देता हूं कि यदि तू अपने शील आदि से विचलित नहीं होता है तो मैं नौका को मात्र दो अंगुलियों से पकड़कर सात-आठ तल (भौम, मंजिल) प्रमाण ऊपर आकाश में उछालता हूं। समुद्र में डुबोता हूं। तू आर्त्त, पीड़ित और परवश बना हुआ असमाधि को प्राप्त होगा, असमय में ही मृत्यु का वरण करेगा ।
अर्हक श्रमणोपासक ने मन ही मन उस देव से कहा- देवानुप्रिय ! मैं अर्हनक नाम का श्रमणोपासक जीव और अजीव का ज्ञाता हूं। कोई भी देव, दानव, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, महोरग या गन्धर्व निर्ग्रथ प्रवचन से मुझे विचलित नहीं कर सकता। तुम जैसा चाहो वैसा करो, ऐसा कह वह धर्म्य - ध्यान में लीन हो गया।
दिव्य पिशाच ने अर्हन्नक श्रमणोपासक को दूसरी तीसरी बार भी चेतावनी दी। पर वह विचलित नहीं
बार,
हुआ ।
दिव्य पिशाच ने अर्हन्त्रक श्रमणोपासक को जब धर्म्यध्यान में लीन देखा तो प्रबल क्रोध से तमतमाते हुए