________________
प्रायोगिक दर्शन
आसुरर्त्ते तं पोयवहणं दोहिं अंगुलियाहिं गेण्es, गेण्हित्ता सत्तट्ठतलप्पमाणमेत्ताइं उड्ढं वेहासं उव्विes, उव्विहित्ता अरहण्णगं एवं वयासी- हंभो अरहणगा !..... तं जइ णं तुमं सील.....न चालेसि..... तो ते अहं एयं पोयवहणं अंतो जलंसि निब्बोलेमि, जेणं तुमं अट्ठ- दुहट्ट - वसट्टे असमाहिपत्ते अकाले चेव जीवियाओ
४२९
बरोविज्जसि ।
तए णं से अरहण्णगे समणोवासए...... अदीणविमण- माणसे निच्चले निप्फंदे तुसिणीए धम्मज्झाणोवगए विहरइ ।
तणं से पिसायरूवे अरहण्णगं जाहे नो संचाएइ निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए ..... ताहे संते तंते परितंते निव्विण्णे तं पोयवहणं सणियं -सणियं उमरिं जलस्स ठवेइ, ठवेत्ता तं दिव्वं पिसायरूवं पडिसाहरेइ, पडिसाहरेत्ता दिव्वं देवरूवं विउव्वइअंतलिक्खपडिव सखिखिणीयाई दसद्धवण्णाई स्थाई पवरपरिहिए अरहण्णगं समणोवासगं एवं वयासी- हंभो अरहणगा! समणोवासया ! धन्नेसि णं तुमं देवाणुप्पिया ! पुणेसि णं तुमं देवाणुप्पिया ! कत्थेसि णं तुमं देवाणुप्पिया! कयलक्खणेसि णं तुमं देवाणुप्पिया! सुलद्धे णं तव देवाणुप्पिया ! माणुस्सए जम्मजीवियफले, जस्स णं तव निग्गंथे पावयणे इमेयारूवा पडिवत्ती लद्धा पत्ता अभिसमण्णागया ।
एवं खलु देवाणुप्पिया ! सक्के देविंदे देवराया सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडिंसए विमाणे सभाए हम्मा बहूणं देवा मज्झगए महया-महया सद्देणं एवं आइक्ख....एवं खलु देवा ! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे चंपाए नयरीए अरहण्णए समणोवासए अभिगयजीवाजीवे । नो खलु सक्के के देवेण वा दावेण वा जक्खेण वा रक्खसेण वा किन्नरेण वा किंपुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए ... ।
तणं अहं देवाणुप्पिया ! सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो नो एयमट्ठं सद्दहामि, पत्तियामि रोएमि । तएं णं मम इमेयारूवे अज्झत्थिए ....मणोगए
अ. २ : सम्यग्दर्शन
उसने नौका को दो अंगुलियों से पकड़ा। सात-आठ तल प्रमाण ऊपर आकाश में उठाया और कहा- अरे ! ओ अर्हनक ! यदि तू अपने शील आदि से विचलित नहीं होता है तो मैं इस नौका को पानी में डुबोता हूं । तू आर्त्त, परवश और असमाधिस्थ बना असमय में ही मृत्यु को प्राप्त करेगा।
दिव्य पिशाच के ऐसा कहने पर भी अर्हन्नक श्रमणोपासक अदीन, अनातुर, निश्चल, निःस्पंद और मौनभाव से धर्म्यध्यान में लीन रहा ।
दिव्य पिशाच जब अर्हन्नक को निर्ग्रथ प्रवचन से विचलित नहीं कर सका तो श्रान्त, क्लान्त, परिक्लान्त और खेदखिन्न हो उसने नौका को धीरे-धीरे पानी पर रख दिया। अपने पिशाच रूप को समेटा । दिव्य रूप को प्रकट किया। घुंघरू लगे सुन्दर पचरंगे वस्त्र पहने। आकाश में स्थित हो गया और श्रमणोपासक अर्हन्नक को संबोधित कर कहा- देवानुप्रिय ! तुम धन्य हो, पुण्य हो, कृतार्थ और कृत-लक्षण हो। तुमने मनुष्य जीवन को सफल बनाया है। निर्ग्रथ प्रवचन में तुम्हारी दृढ़ आस्था है, विश्वास है। तुमने उसे भलीभांति हृदयंगम किया है।
देव ने अपने आगमन का प्रयोजन बताते हुए कहादेवानुप्रिय ! प्रथम स्वर्ग के सौधर्मावतंसक विमान की सुधर्मा सभा में देवराज इन्द्र उपस्थित थे। वहां देवों की सभा जुड़ी थी। इन्द्र ने उस सभा को संबोधित करते हुए कहा- जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र में चम्पा नाम की नगरी है। वहां अर्हन्नक नाम का श्रमणोपासक रहता है। वह जीव और अजीव का ज्ञाता है। उसे कोई भी देव, दानव, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गन्धर्व निग्रंथ-प्रवचन (जिनशासन) से विचलित नहीं कर सकता ।
देवराज इन्द्र के इस कथन पर मुझे न श्रद्धा हुई, न प्रतीति हुई और न रुचि हुई। मैंने अपने मन में निश्चय किया