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________________ आत्मा का दर्शन ४३० खण्ड-४ संकप्पे समुप्पज्जित्थागच्छामि णं अहं अरहण्णगस्स अंतियं मैं जाऊं और अर्हन्नक के समक्ष प्रकट हो उसकी पाउब्भवामि, जाणामि ताव अहं अरहण्णगं-किं . परीक्षा करूं-वह प्रियधर्मा है या नहीं? दृढ़धर्मा है या पियधम्मे नो पियधम्मे? दढधम्मे नो दढधम्मे? नहीं? शील आदि से विचलित होता है या नहीं? यह सील....किं चालेइ नो चालेइ?....त्ति कटु एवं सोच मैंने अवधिज्ञान का प्रयोग किया। तुम्हें देखा। संपेहेमि, संपेहेत्ता ओहिं पउंजामि, पउंजित्ता तुम्हारे पास पहुंचने के लिए ईशानकोण में गया। उत्तरदेवाणुप्पियं ओहिणा आभोएमि, आभोएत्ता वैक्रिय-यहां आने योग्य रूप का निर्माण किया। अति उत्तरपुरत्थिमं दिसीभागं अवक्कमामि उत्तर- त्वरित गति से लवणसमुद्र में तुम्हारे पास आया। उपसर्ग वेउब्वियं रूवं विउव्वामि, विउव्वित्ता ताए किया। पर तुम उपसर्ग से विललित नहीं हुए। भयभीत उक्किट्ठाए देवगईए जेणेव लवणसमुद्दे जेणेव नहीं हुए। देवाणुप्पिए तेणेव उवागच्छामि, उवागच्छित्ता देवाणुप्पियस्स उवसगं करेमि, नो चेव णं देवाणुप्पिए भीए...... तं ज णं सक्के देविदे देवराया एवं वयइ, सच्चे णं मैंने अनुभव किया-देवराज इन्द्र का कथन सही है। एसमठे। तं दिढे णं देवाणुप्पियस्स इड्ढी जुई तुम्हारी ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य, पुरुषकार और जसो बलं वीरियं पुरिसकार-परक्कमे लढे पत्ते । पराक्रम को मैंने जान लिया है। देवानुप्रिय! मैंने तुम्हें जो अभिसमण्णागए। तं खामेमि णं देवाणुप्पिया! कष्ट दिया, उसके लिए मैं क्षमा चाहता हूं। तुम क्षमा खमेसु णं देवाणुप्पिया! खंतुमरिहसि णं करने में समर्थ हो। मुझे क्षमा करो। मैं फिर कभी ऐसा देवाणुप्पिया! नाइ भुज्जो एवंकरणयाए त्ति कटु नहीं करूंगा। ऐसा कह बद्धांजलि हो देव अर्हन्नक के पंजलिउडे पायवडिए एयमठं विणएणं भुज्जो- चरणों में झुक गया और विनयपूर्वक अपने अपराध के भुज्जो खामेइ। लिए पुनः क्षमा मांगने लगा। अरहण्णगस्स य दुवे कुंडलजुयले दलयइ, दलइत्ता अर्हन्नक को कुण्डल-युगल उपहार में देकर दिव्य जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव दिसिं पडिगए। तए णं पिशाच जिस दिशा से आया था उसी दिशा में चला गया। से अरहण्णए निरुवसग्गमिति कटु पडिम पारेइ। संकट टल गया। अर्हन्नक ने कायोत्सर्ग सम्पन्न किया। सम्यक्दर्शन का विघ्न : मिथ्या आग्रह कुमारश्रमण केशी और राजा प्रदेशी १८. तए णं पएसी राया केसिं कुमार-समणं एवं श्वेतविका नगरी। प्रदेशी राजा। चित्त नाम का वयासी-एवं खलु भंते! मम अज्जगस्स एस सारथी/सचिव। प्रदेशी का अभिमत था-जीव और शरीर सण्णा....जहा-तज्जीवो तं सरीरं, नो अण्णो जीवो एक हैं। एक दिन प्रदेशी ने कुमारश्रमण केशी से अण्णं सरीरं। कहा-भंते! मेरे दादा की मान्यता थी-जीव और शरीर एक हैं। वे भिन्न-भिन्न नहीं हैं। तयाणंतरं च णं ममं पिउणो वि एस सण्णा.... मेरे पिता की भी यही मान्यता रही-जीव और शरीर जहा-तज्जीवो तं सरीरं, नो अण्णो जीवो अण्णं ___एक हैं। वे भिन्न-भिन्न नहीं हैं। सरीरं। तयाणंतरं मम वि एस सण्णा.....जहा तज्जीवो तं मैं भी ऐसा ही मानता हूं-जीव और शरीर एक हैं। वे सरीरं, नो अण्णो जीवो अण्णं सरीरं। तं नो खलु भिन्न-भिन्न नहीं हैं। (यद्यपि मैंने जीव और शरीर की
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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