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प्रायोगिक दर्शन
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अहं बहुपुरिसपरंपरागयं कुलणिस्सियं दिठिं छड्डेस्सामि ।
लोहवणिक
१९. तए णं केसी कुमारसमणे पएसिरायं एवं वयासी - मा णं तुमं पएसी ! पच्छाणुताविए भवेज्जासि जहा व से पुरिसे अयहारए । के णं भंते! से अयहारए ?
पएसी ! से जहाणामए - केइ पुरिसा अत्थत्थी अत्थगवेसी अत्थलुद्धगा अत्थकंखिया अत्थपिवासिया अत्थगवेसणयाए विउलं पणियभंडा सुबहु भत्तपाण-पत्थयणं गहाय एवं महं • अगामियं छण्णावायं दीहमद्धं अडविं अणुपविट्ठा । तणं ते पुरिसा तीसे अगामियाए छिण्णावायाए दीहमाए अडवीए कंचि देसं अणुप्पत्ता समाणा एगमहं अयागरं प्रासंति-अएणं सव्वतो समंता आइण्णं.....पासंति, पासित्ता हट्ठतुट्ठा.... ।
अण्णमण्णं सहावेंति, सहावेत्ता एवं वयासी-एस णं देवाणुप्पिया ! अयभंडे इट्ठे कंते पिए मणुण्णे मामे, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं अयभारयं बंधत्त त कट्टु अण्णमण्णस्स अंतिए एयमट्ठ पडिसुर्णेति, अयभारं बंधंति, बंधित्ता अहाणुपुव्वीए संपत्थिया ।
तणं ते पुरिसा तीसे अगामियाए छिण्णावायाए दीहमा अडवीए कंचि देसं अणुप्पत्ता समाणा एगं महं तउआगरं पासंति-तउएणं आइण्णं विच्छिण्णं पासंति, पांसित्ता हट्ठतुट्ठा..... । - अण्णमण्णं सहावेंति, सहावेत्ता एवं वयासी - एस णं देवाणुप्पिया ! तउयभंडे इट्ठे कंते पिए मणुण्णे मणामे। अप्पेणं चेव तउएणं सुबहुं अए लब्भति, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! अयभारयं छड्डेत्ता तउयभारयं बंधित्त त्ति कट्टु अण्ममण्णस्स अंतिए एयमठ्ठे पडिसुणेंति ।
अयभारं छड्डेंति तउयभारं बंधंति ।
तत्थ णं एगे पुरिसे णो संचाएइ अयभारं छड्डेत्तए, तज्यभारं बंधित्तए । तए णं ते पुरिसा तं पुरिसं एवं
अ. २ : सम्यग्दर्शन
भिन्नता का सिद्धांत आपसे समझ लिया है, फिर भी कुल परंपरा से चली आ रही मान्यता को मैं नहीं छोडूंगा ।)
प्रदेशी ! यदि तुम अपने आग्रह को नहीं छोड़ते हो तो फिर लोहवणिक् की तरह पछताओगे ।
भंते! वह लोहवणिक् कौन था ?
प्रदेशी ! कुछ पुरुष अर्थोपार्जन के लिए जा रहे थे। उन्होंने अपने साथ विपुल मात्रा में खाद्य सामग्री ली। चलते-चलते वे एक विशाल जंगल में पहुंचे।
दूर-दूर तक उसके पास कोई गांव नहीं था। लोगों का आवागमन भी उस जंगल में नहीं के बराबर था। वे थोड़ी ही दूर चले कि उन्होंने एक बड़ी लोहे की खान देखी । उसमें चारों ओर लोहा ही लोहा था । उसे देखकर वे अत्यंत प्रसन्न हुए।
परस्पर एक दूसरे से कहने लगे- यह लोहे की खान अत्यंत सुन्दर, प्रिय और मनोज्ञ है। इसलिए उचित होगा कि हम इस लोहे का एक-एक भार बांध लें। सब इस मंत्रण से सहमत हो गये। उन्होंने लोहे के भारे बांधे और आगे बढ़ गए।
चलते-चलते उन्होंने एक रांगे की खान देखी। उसे देख उनका हृदय प्रसन्नता से भर गया। वे परस्पर बताने लगे-यह रांगे की खान सुन्दर, प्रिय और मनोज्ञ है। थोड़े से रांगे से हम बहुत-सा लोहा प्राप्त कर सकेंगे। अतः अच्छा हो, इस लोह - भार को यहीं गिरा रांगे का भारा बांध लें।
उन्होंने लोहार को गिरा रांगे के भारे बांधे। एक व्यक्ति ने लोह को गिरा रांगे का भार बांधना पसंद नहीं किया। शेष व्यक्तियों ने उससे कहा