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________________ आत्मा का दर्शन ४३२ वयासी - एस णं देवाणुप्पिया ! तउयभंडे इट्ठे कंते पि मणुणे मणा । अप्पेणं चेव तउएणं सुबहु अए लब्भति । तं छड्डेहि णं देवाणुप्पिया! अयभारगं, तयभारगं बंधाहि । तए णं से पुरिसे एवं वयासी - दूराहडे मे देवाणुप्पिया! अए, णो संचाएमि अयभारगं छड्डेत्ता तउभारगं बंधित्तए । तणं ते पुरिसा तं पुरिसं जाहे णो संचाएंति बहूहिं आघवणाहिय....। तया अहाणुपुव्वीए संपत्थिया । तए णं ते पुरिसा..... दीहमदाए अडवीए कंचि देसं अणुपत्ता समाणा एवं महं तंबागरं पासंति... एगं महं रुप्पागरं पासंति..... एगं महं सुवण्णागरं पासंति.....एगं महं रयणागारं पासंति.... एगं महं वइरागरं पासंति,....। रयणभारं छड्डेंति । वइरभार बंधति । तणं से पुरिसे णो संचाएइ अयभारं छड्डेत्तए, aseभारं बंधित्तए । तए णं ते पुरिसा तं पुरिसं एवं वयासी- एस णं देवाप्पिया! वइरभंडे इट्ठे.... अप्पेणं चेव वइरेणं सुबहुं अए लब्भति । तं छड्डेहि णं देवाणुप्पिया! अयभारगं। वइरभारगं बंधाहि । तए णं से पुरिसे एवं वयासी- दूराहडे मे देवाप्पिया! अए, चिराहडे मे देवाणुप्पिया ! अए, अइगाढबंधणबद्धे मे देवाणुप्पिया ! अए,....णो संचाएमि अयभारगं छड्डेत्ता वइरभारयं बंधित्तए । तणं ते पुरिसा जेणेव सया जणवया जेणेव साईसाइं नगराई तेणेव उवागच्छंति, वइरवेयणं करेंति, सुबहुं दासी - दास- गो-महिस - गवेलगं गिण्हंति, अट्ठतलमूसिय-पासावडेंसगे करावेंति....इट्ठे सह-फरिस - रस- रूव-गंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोए पच्चणुभवमाणा विहरंति । तणं से पुरिसे अयभारए जेणेव सए नगरे तेणेव उवागच्छइ । अयभारगं गहाय वेयणं करेति । तंसि अयपुग्गलंसि निट्ठियंसि झीणपरिव्वए ते पुरिसे उप्पिं पासायवरगए....। इट्ठे सह-फरिस - रसरूव-गंधे पंचविहे माणुस्सए कामभो पच्चणुभवमाणे विहरमाणे पासति, पासित्ता एवं खण्ड - ४ देवानुप्रिय ! यह रांगा सुन्दर, प्रिय और मनोज्ञ है। थोड़े से रांगे से बहुत-सा लोहा प्राप्त किया जा सकता है। देवानुप्रिय ! तुम लोहार को छोड़ दो और रांगे का भारा बांध लो। मित्रो! मैं इसे बहुत दूर से उठाकर लाया हूं। इसलिए मैं इस लोहभार को छोड़ रांगे का भार नहीं बांधूंगा । मित्रों के बहुत कहने पर भी लोहवणिक् ने अपना आग्रह नहीं छोड़ा। वहां से वे आगे चले। उन व्यक्तियों ने क्रमशः तांबे की खान, चांदी की खान, सोने की खान, रत्नों की खान और वज्र (हीरा) की खान देखी। वे पहले भारे को छोड़ते गए और नया भारा बांध गए। अंत में उन्होंने वज्र के भारे बांधे । लोहवणिक् ने लोहभार को गिरा वज्र का भारा बांधना पसंद नहीं किया। उन्होंने लोहवणिक् से कहा- देवानुप्रिय ! यह वज्र इष्ट है। थोड़े से वज्र से बहुत-सा लोहा प्राप्त किया जा सकता है। इसलिए इस लोहभार को छोड़ वज्र का भारा बांध लो। लोहवणिक् ने कहा- देवानुप्रिय ! मैंने इस लोह का दूर तक भार ढोया है, चिर काल तक भार ढोया है, इसे गाढ़ बंधन से बांध रखा है। मैं इसे छोड़ वज्र का भारा नहीं बांधूंगा । वे वणिक् स्वदेश लौटे और अपने-अपने नगरों में चले गए। वज्र को बेच बहुत अर्थार्जन किया। बहुत से दास, दासी, गाय, भैंस और भेड़ें खरीदीं। आठ मंजिल ऊंचे विशिष्ट प्रासाद बनवाये । विविध प्रकार से आमोदप्रमोद करते हुए सुखपूर्वक रहने लगे। लोहवणिक् लोहार को लेकर अपने नगर पहुंचा । लोहे को बेचा। उसे थोड़ा-सा धन मिला। कुछ ही दिनों में सारा धन समाप्त हो गया। वह दीन-हीन हो गया। एक दिन उसने अपने साथियों को बहुमंजिले प्रासादों में आमोद-प्रमोद करते देखा। वह अपने आप को कोसने लगा-मैं कितना अधन्य हूं, अपुण्य हूं।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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