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________________ प्रायोगिक दर्शन ४३३ अ. २ : सम्यग्दर्शन यदि मैं अपने मित्रों, ज्ञातिजनों और स्वजनों की बात मान लेता तो मैं भी आज इसी तरह आमोद-प्रमोद के साथ सुखपूर्वक रहता। बयासी-इहां णं अहं अधण्णे अपुण्णे.....। जति णं अहं मित्ताण वा णाईण वा नियगाण वा सुणेतओ तो णं अहं पि एवं चेव....इठे सह- फरिस-रस-रूव-गंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोए पच्चुभवमाणे विहरतो। से तेणठेणं पएसी! एवं वुच्चइ-मा णं तुम पएसी! पच्छाणुताविए भवेज्जासि जहा व से पुरिसे अयभारए। प्रदेशी ! इसीलिए मैं कह रहा हूं फिर तुम को पछताना न पड़े, जैसे वह लोहवणिक् पछताया। सम्यक्त्व के स्थान २०.गत्थिन अविणासधम्मी। करेई वेएइ अस्थि णिव्वाणं। अत्थि य मोक्खोवाओ। छस्सम्मत्तस्स ठाणाइं॥ सम्यक्त्व के छह स्थान हैं१. आत्मा है। २. आत्मा अविनाशी/शाश्वत है। ३. आत्मा सुख-दुःख का कर्ता है। ४. आत्मा कृत कर्म का भोक्ता है। ५. निर्वाण है। ६. निर्वाण का उपाय है। मिथ्यात्व के स्थान २१.णत्थि ण णिच्चो ण कुणइ। कयं ण वेएइ णत्थि णिव्वाणं। णत्थि य मोक्खोवाओ। छम्मिच्छत्तस्स ठाणाई॥ मिथ्यात्व के छह स्थान हैं१. आत्मा नहीं है। २. आत्मा नित्य नहीं है। ३. आत्मा सुख-दुःख का कर्ता नहीं है। ४. आत्मा कृत कर्म का भोक्ता नहीं है। ५. निर्वाण नहीं है। ६. निर्वाण का उपाय नहीं है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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