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प्रायोगिक दर्शन
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अ. २ : सम्यग्दर्शन
यदि मैं अपने मित्रों, ज्ञातिजनों और स्वजनों की बात मान लेता तो मैं भी आज इसी तरह आमोद-प्रमोद के साथ सुखपूर्वक रहता।
बयासी-इहां णं अहं अधण्णे अपुण्णे.....। जति णं अहं मित्ताण वा णाईण वा नियगाण वा सुणेतओ तो णं अहं पि एवं चेव....इठे सह- फरिस-रस-रूव-गंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोए पच्चुभवमाणे विहरतो। से तेणठेणं पएसी! एवं वुच्चइ-मा णं तुम पएसी! पच्छाणुताविए भवेज्जासि जहा व से पुरिसे अयभारए।
प्रदेशी ! इसीलिए मैं कह रहा हूं फिर तुम को पछताना न पड़े, जैसे वह लोहवणिक् पछताया।
सम्यक्त्व के स्थान २०.गत्थिन अविणासधम्मी। करेई वेएइ अस्थि णिव्वाणं। अत्थि य मोक्खोवाओ। छस्सम्मत्तस्स ठाणाइं॥
सम्यक्त्व के छह स्थान हैं१. आत्मा है। २. आत्मा अविनाशी/शाश्वत है। ३. आत्मा सुख-दुःख का कर्ता है। ४. आत्मा कृत कर्म का भोक्ता है। ५. निर्वाण है। ६. निर्वाण का उपाय है।
मिथ्यात्व के स्थान २१.णत्थि ण णिच्चो ण कुणइ।
कयं ण वेएइ णत्थि णिव्वाणं। णत्थि य मोक्खोवाओ। छम्मिच्छत्तस्स ठाणाई॥
मिथ्यात्व के छह स्थान हैं१. आत्मा नहीं है। २. आत्मा नित्य नहीं है। ३. आत्मा सुख-दुःख का कर्ता नहीं है। ४. आत्मा कृत कर्म का भोक्ता नहीं है। ५. निर्वाण नहीं है। ६. निर्वाण का उपाय नहीं है।