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________________ प्रायोगिक दर्शन जयं करेमाणे विहरs | एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरिय उवज्झायाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे पंचमहव्वएसु छज्जीवनिकाएसु निग्गंथे पावयणे निस्सकिए निक्कंखिए निव्वितिगिंछे से णं इहभवे a. बहू समणा बहूणं समणीणं बहूणं सावगाणं बहूणं सावियाणं य अच्चणिज्जे वंदणिज्जे ...... भवइ ।..... पुणो अणाइयं च णं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरतं. संसारकंतारं वीईवइस्सर । १४. कत्थइ मइदुब्बल्लेण, गहणत्तणेणं, १५. हेउदाहरणासंभवे य, सव्वण्णुमयमवितहं, ४२५ १६. अणुवकय- पराणुग्गहं, जिय-राग-दोस- मोहा, तव्विहायरियविरहओ वावि । नाणावरणोदयेणं च ॥ अमूढ़दृष्टि सुजं न बुझेज्जा । तहावि इइ चिंतए मइमं ॥ परायणा उ जिणा जगप्पवरा । यन्नावाइणो तेण ॥ अ. २ : सम्यग्दर्शन घूमने लगा । आयुष्मन् श्रमणो ! इसी प्रकार जो निर्ग्रथ और निर्ग्रथी आचार्य उपाध्याय के पास मुंड हो, अगार से अनगार रूप में प्रव्रजित हो, पांच महाव्रतों, षड्जीवनिकायों और निर्ग्रथ प्रवचन में शंका, कांक्षा और विचिकित्सा नहीं रखता, वह इस जीवन में सबके लिए अर्चनीय और वंदनीय होता है। वह अनादि, अनंत, प्रलंब मार्ग तथा चातुरंत संसार कान्तार का पार पा लेगा। श्रमणोपासक अर्हन्नक • १७. तेण कालेणं तेणं समएणं अंगनामं जणवए होत्था । तत्थ णं चंपा नामं नयरी होत्था । तथ णं चंपाए नयरीए चंदच्छए अंगराया होत्था । तत्थ णं चंपाए नयरीए अरहण्णगपामोक्खा बहवे संजत्ता - नावावाणियगा परिवसंति - अड्ढा जाव बहुजणस्स अपिरभूया । तए णं से अरहण्णगे समणोवासए यावि होत्था - अहिगयजीवाजीवे । तए णं तेसिं अरहण्णगपामोक्खाणं संजत्ता मति की दुर्बलता, सम्यक् मार्गदर्शक आचार्य का अभाव, ज्ञेय ग्रहण का असामर्थ्य, ज्ञानावरणीय कर्म का उदय, हेतु और दृष्टांत का अभाव - इन कारणों से कदाचित् सम्यक् बोधि न हो तो भी मतिमान मनुष्य यह सोच - सर्वज्ञ द्वारा अनुमत तत्त्व अवितथ है- सत्य है । अकारण परोपकारपरायण, राग-द्वेष और मोह - विजेता, लोकोत्तम जिन अन्यथा भाषण - अयथार्थ निरूपण नहीं करते। अंग नाम का जनपद । चम्पा नाम की नगरी । उसे नगरी में चन्द्रच्छाय नाम का राजा। वहां अर्हन्त्रक आदि पोतवणिक रहते थे। वे सम्पन्न और प्रभावशाली थे। अर्हन्नक श्रमणोपासक था। वह जीव, अजीव आदि नौ तत्त्वों को जानने वाला था । एक दिन वे पोतवणिक परस्पर वार्तालाप करने
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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