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________________ आत्मा का दर्शन ४४८ खण्ड-४ फाल्गुनी नक्षत्र का योग। पूर्वाभिमुख छाया। अंतिम प्रहर का समय। दो दिन का निर्जल उपवास। एक शाटक-उत्तरीय वस्त्र साथ ले सहस्रों द्वारा ले जाई जाने वाली चन्द्रप्रभा शिविका-पालकी में बैठ महावीर ने अभिनिष्क्रमण किया। देव, मनुष्य और असुर उसके पीछे-पीछे चल रहे थे। वह शिविका उत्तर क्षत्रिय कुंडपुर . सन्निवेश के बीचों बीच गुजरी और ज्ञातखंड उद्यान में पहुंची। शिविका को धीरे-धीरे भूमि से लगभग एक हाथ ही ऊंचाई पर रखा गया। महावीर धीरे-धीरे चन्द्रप्रभा शिविका से नीचे उतरे। पूर्वाभिमुख सिंहासन पर बैठे। आभरण, अलंकार आदि उतारे। मग्गसिरबहुलस्स दसमीपक्खेणं सुव्वएणं दिव- सेणं, विजएणं मुहत्तेणं, हत्थुत्तराहिं णक्खत्तेणं जोगोवगएणं, पाईणगामिणीए छायाए, वियत्ताए पोरिसीए, छठेणं भत्तेणं अपाणएणं एगसाडगमायाए, चंदप्पहाए सिवियाए सहस्स- वाहिणीए, सदेवमणुयासुराए परिसाए समण्णिज्जमाणे-समण्णिज्जमाणे उत्तरखत्तियकुंडपुरसंणिवेसस्स मज्झमज्झेणं णिगच्छइ, णिगच्छित्ता जेणेव णायसंडे उज्जाण तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ईसिं रयणिप्पमाणं अच्छुप्पेणं भूमिभागेणं सणियं सणियं चंदप्पभं सहस्सवाहिणिं ठवेइ, ठवेत्ता सणियं-सणियं चंदप्पभाओ सिवियाओ सहस्सवाहिणीओ पच्चोयरइ, पच्चोयरित्ता सणियं सणियं पुरत्थाभिमुहे सीहासणे णिसीयइ, आभरणालंकारं ओमुयइ। तओ णं वेसमणे देवे जन्नुव्वायपडिए समणस्स भगवओ महावीरस्स हंसलक्खणेणं पडेणं आभारणालंकारं पडिच्छइ। तओ णं समणे भगवं महावीरे दाहिणणं दाहिणं वामेणं वामं पंचमुट्ठियं लोयं करेइ। . तओ णं सक्के देविदे देवराया समणस्स भगवओ महावीरस्स जन्नुव्वायपडिए वयरामएणं थालेणं केसाइं पडिच्छइ, पडिच्छित्ता अणुजाणेसि भंते त्ति कटु खीरोयसायरं साहरइ। तओ णं समणे भगवं महावीरे दाहिणणं दाहिणं वामेणं वामं पंचमुट्ठियं लोयं करेत्ता सिद्धाणं णमोक्कारं करेइ, करेत्ता सव्वं मे अकरणिज्जं पावकम्मं ति कट्ट सामाइयं चरित्तं पडिवज्जइ, सामाइयं चरित्तं पडिवज्जेत्ता देवपरिसं मणुयपरिसं च आलिक्खचित्तभ्यमिव 8वेइ। वैश्रमण देव ने घुटनों के बल बैठ अलंकारों को एक श्वेत वस्त्र-खंड में ग्रहण किया। महावीर ने दाहिने हाथ से दाहिनी ओर का एवं बायें हाथ से बायीं ओर का पंचमुष्टि केशलुंचन किया। देवराज शक्र ने घुटनों के बल बैठ महावीर की ... केशराशि को व्रजरत्नमय थाल में ग्रहण किया। 'भंते! आपकी आज्ञा है'-ऐसा कह उसने उस केशराशि को क्षीर समुद्र में प्रवाहित कर दिया। महावीर ने पंचमुष्टि केशलुंचन कर सिद्धों (मुक्त आत्माओं) को नमस्कार किया। 'आज से मेरे लिए सब प्रकार के पापकर्म अकरणीय हैं'-इस संकल्प के साथ उन्होंने सामायिक चारित्र स्वीकार किया। उस समय देवपरिषद और मनुष्यपरिषद भित्तिचित्र की भांति हो गई। मुनिधर्म ८. अहिंस सच्चं च अतेणगं च । तत्तो य बंभं अपरिग्गहं च। पडिवज्जिया पंच महव्वयाणि चरिज्जधम्मं जिणदेसियं विऊ॥ अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-इन पांच महाव्रतों को स्वीकार कर विद्वान मुनि वीतराग उपदिष्ट धर्म का आचरण करे।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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