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प्रायोगिक दर्शन
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अ. ४ : सम्यक्चारित्र
९. इच्चेयाइं पंचमहव्वयाइं राईभोयणवेरमणं छट्ठाई
अत्तहियट्ठयाए उवसंपज्जित्ताणं विहरामि।
ये पांच महाव्रत और छट्ठा रात्रिभोजन विरमण-मैं आत्महित के लिए इनको स्वीकार कर विहार कर रहा हूं।
मृगापुत्र का गृहत्याग १०.सुग्गीवे नयरे रम्मे काणणज्जाणसोहिए।
राया बलभदो त्ति मिया तस्सग्गमाहिसी॥ तेसिं पुत्ते बलसिरी मियापुत्ते त्ति विस्सुए। अम्मापिऊण दइए जुवराया दमीसरे॥
कानन और उद्यान से शोभित, सुरम्य सुग्रीव नगर में बलभद्र राजा था। मृगा उसकी पटरानी थी।
उनके बलश्री नाम का पुत्र था। वह मृगापुत्र नाम से विश्रुत था। वह. माता-पिता को प्रिय, युवराज और दमीश्वर-इन्द्रियों का निग्रह करने वाला था।
वह दोगुन्दग देवों की भांति सदा प्रमुदित रहता हुआ आनन्ददायक प्रासाद में स्त्रियों के साथ क्रीडा में रत रहता
नंदणे सो उ पासाए कीलए सह इत्थिहिं। देवो दोगंदगो चेव निच्चं मइयमाणसो॥
था।
मणिरयणकुटिमतले आलोएइ नगरस्स
पासायालोयणठिओ। चउक्कतियचच्चरे॥
अह तत्थ अइच्छंतं पासई समणसंजयं। तवनियमसंजमंधरं सीलड्ढं गुणआगरं॥
तं देहई मियापुत्ते ठिीए अणिमिसाए उ। कहिं मन्नेरिसं रूवं दिठ्ठपुव्वं मए पुरा॥
मणि और रत्न जड़ित फर्श वाले प्रासाद के गवाक्ष में बैठा हुआ मृगापुत्र नगर के चौराहों, तिराहों और चौहट्टों को देख रहा था।
उसने उस मार्ग से जाते हुए एक संयमी मुनि को देखा। वह तप, नियम और संयम का धारक, शील से समृद्ध एवं गुणों का आकर था।
मृगापुत्र ने अनिमेष दृष्टि से उसे देखा और मन ही मन चिंतन-आलोचन किया-मैंने ऐसा रूप पहले कहीं देखा है। ____साधु-दर्शन, अध्यवसाय-विशुद्धि और सम्मोहन की अवस्था में उसे पूर्वजन्म की स्मृति हो गई।
जातिस्मृतिज्ञान उत्पन्न होने पर मृगापुत्र को पूर्व जन्म में जो मुनिधर्म का पालन किया था, उसकी स्मृति हो आई।
साहुस्स दरिसणे तस्स अन्झवसाणम्मि सोहणे। मोहंगयस्स संतस्स जाईसरणं समुप्पन्नं॥ जाईसरणे समुप्पन्ने मियापुत्ते महिड्ढिए। सरई पोराणियं जाइं सामण्णं च पुराकयं॥
मृगापुत्र विसएहि अरज्जतो रज्जतो संजमम्मि य। अम्मापियरं उवागम्म इमं वयणमब्बवी॥ सुगाणि मे पंच महव्वयाणि
नरएसु दुक्खं च तिरिक्खजोणिसु। निविण्णकामो मि महण्णवाओ
अणुजाणह पव्वइस्सामि अम्मो! अम्मताय! मए भोगा भुत्ता विसफलोवमा। पच्छा कडुयविवागा अणुबंधदुहावहा॥
वह विषयों से अनासक्त और संयम में अनुरक्त हो गया। माता-पिता के समीप आ उसने कहा___ मैं पांच महाव्रतों को जानता हूं। नरक और तिर्यंच योनियों में होने वाले दुःख को भी जानता हूं। मैं संसार समुद्र से विरक्त हो गया हूं। माता-पिता! मैं मुनि बनना चाहता हूं। आप मुझे अनुज्ञा दें।
माता-पिता! मैंने भोग भोगे हैं। वे विषफल के तुल्य हैं। उनका परिणाम कटु होता है। वे निरंतर दुःख देने वाले हैं।