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________________ आत्मा का दर्शन ४५० खण्ड-४ इमं सरीरं अणिच्चं असासयावासमिणं असुइं असुइसंभवं। दुक्खकेसाणभायणं॥ असासए पच्छा सरीरम्मि पुरावचइयव्वे रई मोवलभामहं। फेणबुब्बुयसन्निभे॥ माणसत्ते असारम्मि वाहीरोगाण आलए। जरामरणपत्थम्मि खणं पि न रमामहं॥ यह शरीर अनित्य है। अशुचि है। अशुचि से उत्पन्न है। यह आत्मा का अशाश्वत आवास है। दुःख और क्लेशों का घर है। इस अशाश्वत शरीर में मुझे आनंद नहीं मिल रहा है। इसे पहले या पीछे जब कभी छोड़ना है। यह फेन के बुलबुले के समान अस्थिर है। यह मनुष्य शरीर सारहीन है। व्याधि और रोगों का घर है। जरा और मरण से ग्रस्त है। इस शरीर में मुझे क्षणभर के लिए भी आनंद नहीं मिल रहा है। जन्म दुःख है। बुढ़ापा दुःख है। रोग दुःख है और मृत्यु दुःख है। आश्चर्य है, संसार दुःख ही दुःख है जहां प्राणी कष्ट पा रहे हैं। भूमि, घर, सोना, पुत्र, स्त्री, स्वजन और इस शरीर को छोड़कर मुझे विवश हो एक दिन यहां से चले जाना जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं रोगा य मरणाणि य। अहां दुक्खो ह संसारो जत्थ कीसंति जंतवो॥ खेत्तं वत्थु हिरण्णं च पुत्तदारं च बंधवा। चइत्ताणं इमं देहं गंतव्वमवसस्स मे॥ जहा किंपागफलाणं परिणामो न सुंदरो। एवं भुत्ताण भोगाणं परिणामो न सुंदरो॥ अद्धाणं जो महंतं तु अपाहेओ पवज्जई। गच्छंतो सो दुही होइ छुहातण्हाए पीडिओ॥ एवं धम्मं अकाऊणं जो गच्छइ परं भवं। गच्छंतो सो दुही होइ वाहीरोगेहिं पीडिओ॥ अद्धाणं जो महंतं तु सपाहेओ पवज्जई। गच्छंतो सो सुही होइ छुहातण्हाविवज्जिओ॥ जिस प्रकार किम्पाक-फल खाने का परिणाम सुन्दर नहीं होता, उसी प्रकार भोगे हुए भोगों का परिणाम सुन्दर नहीं होता। जंगल का लंबा मार्ग, पास में पाथेय नहीं, वह यात्री भूख और प्यास से पीड़ित हो दुःखी होता है। इसी प्रकार जो मनुष्य जीवन में धर्म करता नहीं और परलोक में चला जाता है, वह जीवन यात्रा में व्याधि और रोग से पीड़ित हो दुःखी होता है। जंगल का लंबा मार्ग, पास में, पाथेय है, ऐसा यात्री भूख और प्यास से पीड़ित नहीं होता। सुख पूर्वक जंगल को लांघ देता है। इसी प्रकारं जो मनुष्य धर्म की आराधना कर परभव में जाता है, वह अल्पकर्म और वेदना से मुक्त होता है। उसकी जीवनयात्रा सुखपूर्वक चलती है। __ घर में पलीता लग गया। गृहस्वामी सार द्रव्यों को घर से निकल लेता है, असार को छोड़ देता है। इसी प्रकार यह लोक जरा और मृत्यु की आग से जल रहा है। इस आग से मैं अपने को बाहर निकालना चाहता हूं। आप मुझे अनुज्ञा दें। एवं धम्मं पि काऊणं जो गच्छइ परं भवं। गच्छंतो सो सुही होइ अप्पकम्मे अवेयणे॥ जहा गेहे पलित्तम्मि तस्स गेहस्स जो पहू। सारभंडाणि नणेइ असारं अवउज्झइ॥ एवं लोए पलित्तम्मि जराए मरणेण य। अप्पाणं तारइस्सामि तुम्भेहिं अणुमन्निओ॥ १. किम्पाक एक प्रकार का विष वृक्ष है। इसका फल देखने में अति सुन्दर और खाने में अति स्वादिष्ट होता है। पर इसको खाने का परिणाम है मृत्यु। (उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति पत्र ४५४)
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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