SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 472
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रायोगिक दर्शन अ. ४: सम्यक्चारित्र माता-पिता आह तं बिंतम्मापियरो सामण्णं पुत्त! दुच्चरं। पुत्र! श्रामण्य-मुनिधर्म का आचरण बहुत कठिन है। • गुणाणं तु सहस्साई धारेयव्वाइं भिक्खूणो॥ जो हजारों गुणों को धारण करता है, वही मुनि होता है। समया सव्वभूएसु सत्तुमित्तेसु वा जगे। विश्व के सभी जीवों-शत्रु और मित्र के प्रति समता, पाणाइवायविरई जावज्जीवाए दुक्करा॥ प्राणवध से विरति। आजीवन इनका अनुशीलन बहुत दुष्कर है। निच्चकालप्पमत्तेणं मुसावायविवज्जणं। निरन्तर जागरूकता पूर्वक असत्य से दूर रहना, भासियव्वं हियं सच्चं निच्चाउत्तेण दुक्करं॥ हितकर और सत्यवचन बोलना, सदा जागरूक रहना बहुत कठिन है। दंतसोहणमाइस्स अदत्तस्स - विवज्जणं। बिना दी हुई दतौन जैसी छोटी वस्तु का भी वर्जन, अणवज्जेसणिज्जस्स गेण्हणा अवि दुक्करं॥ अनवद्य और एषणीय वस्तु का ग्रहण बहुत दुष्कर है। विरई अबंभचेरस्स कामभोगरसण्णुणा। काम भोग का रस जानने वाले व्यक्ति के लिए उम्गं महव्वयं बंभं धारेयव्वं सुदुक्करं॥ अब्रह्मचर्य की विरति करना और उग्र ब्रह्मचर्य व्रत को धारण करना बहुत दुष्कर है। धणधन्नपेसवग्गेसु परिग्गहविवज्जणं। धन-धान्य और नौकर-चाकर के परिग्रहण का वर्जन, सव्वारंभपरिच्चाओ निम्ममत्तं सुदुक्करं॥ सब प्रकार के आरंभ को छोड़ना और ममत्व का विसर्जन बहुत दुष्कर है। चउब्विहे वि आहारे · राईभोयणवज्जणा। चतुर्विध आहार-अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य को रात्रि सन्निहीसंचओ चेव वज्जेयव्वो सुदुक्करो॥ में खाने का परित्याग करना, सन्निधि और संचय का वर्जन बहुत दुष्कर है। सुहोइओ तुमं पुत्ता! सुकुमालो सुमज्जिओ। पुत्र! तू सुख भोगने योग्य है, सुकुमार है, स्वच्छ न हसी पभू तुमं पुत्ता! सामण्णमणुपालिउं॥ रहने वाला है। पुत्र! तू श्रामण्य का पालन करने में समर्थ नहीं है। मृगापुत्र आह- तं बिंतम्मापियरो! एवमेयं जहां फुडं। माता-पिता! जो आपने कहा, वह सही है। किन्तु इहलोए निष्पिवासस्स नत्थि किंचि वि दुक्करं। जिस व्यक्ति की ऐहिक सुखों की प्यास बुझ चुकी है, उसके लिए कुछ भी दुष्कर नहीं है। जारिसा माणुसे लोए ताया! दीसंति वेयणा। माता-पिता! मनुष्यलोक में जैसी वेदना है, एत्तो अणंतगुणिया नरएसु दक्खवेयणा॥ उससे अनंत गुणा अधिक दुःख देने वाली वेदना नरकलोक में है। सव्वभवेसु अस्साया वेयणा वेइया मए। मैंने सभी जन्मों में दुःखमय वेदना का अनुभव किया निमेसंतरमित्तं पि जं साया नत्थि वेयणा॥ है। वहां क्षणभर भी सुखमय संवेदना नहीं थी। माता-पिता आह तं वितम्मापियरो छंदेणं पुत्त! पव्वया। पुत्र! तुम्हारी इच्छा है तो मुनि बन जाओ। पर मुनि नवरं पुण सामण्णे दुक्खं निप्पडिकम्मया॥ जीवन में रोगों की चिकित्सा नहीं कराई जाती, यह बहुत दुष्कर है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy