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________________ सृष्टिवाद जैनदर्शन ईश्वरवादी दर्शन नहीं है। वह विश्व की व्याख्या नियम के आधार पर करता है, नियंता के आधार पर नहीं। सृष्टि का निर्माण किसी अलौकिक सत्ता ने नहीं किया है। उसके निर्माता दो हैं-जीव और पुद्गल। जैनदर्शन के अनुसार लोक और सृष्टि दोनों को समझना आवश्यक है। लोक का अर्थ है-मूल तत्त्वों का समवाय। सृष्टि का अर्थ है-जीव और पुद्गल का रूपांतरण, नाना रूपों में परिणमन अथवा परिवर्तन। लोक शब्द में मूल द्रव्यवाद और सृष्टिवाद दोनों समाहित हैं। जिसे हम सृष्टि अथवा दृश्य जगत् कहते हैं, उसका निर्माण जीव और पुद्गल के संयोग से होता है। जीवों के छह निकाय हैं। जीव पुद्गलों को ग्रहण कर अपने-अपने शरीर का निर्माण करते हैं। वह निर्माण ही सृष्टि बन जाता है। कुछ जीवों के शरीर से पृथ्वी का निर्माण होता है। कुछ जीवों के शरीर से जल का निर्माण होता है। इस प्रकार जीवों के शरीर से अनेक तत्त्वों का निर्माण होता है। जीव ही सूक्ष्म पुद्गलों को स्थूल बनाते हैं और वह स्थूल जगत ही हमारा दृश्य जगत् अथवा सृष्टि है। ' प्रस्तुत अध्याय में लोक और सृष्टि का जो स्वरूप विवेचित हुआ है, वह बहुत उपयोगी है। १. लोगो अकिट्टिमो खलु ... अणाइणिहणो सहावणिव्वत्ता। जीवाजीवहिं फुडो सव्वागासावयवो णिच्चो॥ लोक किसी का बनाया हुआ नहीं है। अनादिनिधन है। उसका आदि और अंत नहीं है। वह स्वाभाविक परिणति से परिणत है। जीव व अजीव द्रव्यों से परिव्याप्त है। सम्पूर्ण आकाश का ही एक भाग है। नित्य है। २. सएहिं परियाएहिं लोगं बूया कडे ति य। लोक अपने पर्यायों से कृत है। कुछ व्यक्ति लोक तत्तं ते ण वियाणंति णायं णाऽऽसी कयाइ वि॥ किसी कर्ता की कृति है, ऐसा मानते हैं। यह उनका अपना अभिमत है। पर सही नहीं है। लोक कभी नहीं था, ऐसा नहीं है। ३. अणते णितिए लोए सासए ण विणस्सई। कुछ व्यक्ति मानते हैं कि लोक नित्य, शाश्वत और अंतवं णितिए लोए इइ धीरोऽतिपासई॥ अविनाशी है, इसलिए अनन्त है। किन्तु धीर पुरुष देखता ... है कि लोक नित्य होने पर भी सांत है। ४. अपरिमाणं वियाणाइ इहमेगेसि आहियं। लोक अपरिमित है-ऐसा कुछ व्यक्ति मानते हैं। . सव्वत्थ सपरिमाणं इइ धीरोऽतिपासई॥ किन्तु धीर पुरुष उसे सर्वत्र परिमित देखता है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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