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संबोधि
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अ. १५ : गृहिधर्मचर्या के लिए उसे नीचे रखना। ३. सार्वजनिक स्थान में विश्राम करना। ४. स्थान पर पहुंचकर उसे उतार देना।
वैसे ही श्रावक के चार विश्राम हैं :-१. शीलव्रत, गुणव्रत तथा उपवास ग्रहण करना। २. सामायिक और देशावकाशिक व्रत लेना। ३. अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा को प्रतिक्रमणपूर्वक पौषध करना। ४. मारणांतिक संलेखना करना।
१०.परिग्रहं प्रहास्यामि, भविष्यामि कदा मुनिः।
त्यक्ष्यामि च कदा भक्तं, ध्यात्वेदं शोधयेन्निजम्॥
मैं कब परिग्रह छोडूंगा, मैं कब मुनि बनूंगा, मैं कब भोजन का परित्याग करूंगा'-श्रावक इस प्रकार के चिंतन अथवा मनोरथ से आत्मशोधन करे।
॥ व्याख्या ॥ श्रावक श्रावकत्व में ही संतुष्ट रहना नहीं चाहता। मुमुक्षु व्यक्ति का साध्य होता है-पूर्ण आत्म-स्वातन्त्र्य। आत्मा की स्वतंत्रता के लिए अर्थ और काम बंधन हैं। श्रावक परिग्रह के परिमाण से अपरिग्रह की ओर बढ़ना चाहता है। मुनिजीवन के लिए पूर्ण अकिंचनता अपेक्षित है। अतः उसका पहला संकल्प है परिग्रह-त्याग का। धन, स्वर्ण, चांदी, मुक्ता, दास-दासी आदि सभी परिग्रह हैं। शरीर के प्रति जो आसक्ति है वह उसे छोड़ने का संकल्प करता है। परिग्रह बंधन है। एक कवि के शब्दों में देखिए-अर्थ की उत्पत्ति में दुःख उठाना होता है। उत्पन्न अर्थ की सुरक्षा करनी होती है। उसमें भी दुःख है। आय में दुःख है और व्यय में भी दुःख है। अतः अर्थ दुःख का स्थान है। श्रावक परिग्रह से मुक्त होने के लिए प्रतिदिन यह संकल्प करता है कि कब मैं अल्पमूल्य या बहुमूल्य परिग्रह का प्रत्याख्यान करूंगा।
दूसरा आदर्श उसके सामने मुनि का है, जिसका जीवन निश्चित, निराबाध, निर्द्वन्द्व और निरापद है। एक कवि ने गाया है-जिस साधु-जीवन में न राज्य-भय है, न चोरों का डर है, न आजीविका भय है और न किसी के वियोग का भय है, वह ऐहिक और पारलौकिक दोनों जीवन के लिए कल्याणकारी है। वहां समस्त असत् प्रवृत्तियों का निरोध होता है। आत्मा को निकट से देखने के लिए यह अति उत्तम जीवन है। अतः वह कहता है.......कब मैं मुंड हो, गृहस्थपन छोड़, साधुव्रत स्वीकार करूंगा।
शरीर सब कुछ नहीं है। आत्म-धर्म के सामने यह गौण है। भोजन से शरीर टिकता है। शरीर साधन है। साध्यसिद्धि के लिए उसे भोजन दिया जाता है। जब वह जीर्ण हो जाता है, साध्य में सहायक नहीं होता, तब उसका त्याग किया • जाता है। शरीर के प्रति जो कुछ लगाव होता है उससे हटकर साधक सम बन जाता है। फिर उसे मृत्यु का डर नहीं - सताता। शरीर छूटता है, चाहे साधक उसे छोड़े या साधक को वह छोड़े। इसलिए तीसरा संकल्प है कब मैं समाधिपूर्वक मृत्यु को प्राप्त करूंगा।
११. श्रमणोपासना कार्या, श्रवणं तत्फलं भवेत्।
ततः सजायते ज्ञान, विज्ञानं जायते ततः॥
श्रमणों की उपासना करनी चाहिए। उपासना का फल धर्मश्रवण है। धर्म-श्रवण से ज्ञान और ज्ञान से विज्ञान उत्पन्न होता है।
१२.प्रत्याख्यानं ततस्तस्य, फलं भवति संयमः।
अनास्रवस्तपस्तस्माद्, व्यवदानञ्च जायते॥
विज्ञान का फल है प्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान का फल है संयम। संयम का फल है अनाश्रव-कर्म-निरोध। अनास्रव का फल है तप और तप का फल है व्यवदान-कर्म-निर्जरण।
१३.अक्रिया जायते तस्मानिर्वाणं तत्फलं भवेत्। • महान्तं जनयेल्लाभं, महतां संगमो महान॥
व्यवदान का फल है अक्रिया-मन, वचन और काया की प्रवृत्ति का निरोध और अक्रिया का फल है निर्वाण। इस प्रकार महापुरुष के संसर्ग से बहुत बड़ा हित होता है।