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॥ व्याख्या ॥
उपासना का अर्थ है- समीप बैठना । अच्छाई की उपासना करने से व्यक्ति अच्छा बन जाता है और बुराई की उपासना करने से बुरा। हम जिनकी उपासना करते हैं वैसे ही बन जाते हैं। श्रावक के उपास्य हैं-अरिहंत, सिद्ध और धर्म उपासना केवल शारीरिक न हो, वह मानसिक भी होनी चाहिए। मन और शरीर की एकाग्रता मनुष्य को साध्य तक पहुंचा देती है। श्रावक के निकटतम उपास्य है-मुनि, श्रमण ।
आत्मा का दर्शन
खण्ड-३
श्रमण की उपासना व्यक्ति को केवल श्रमण ही नहीं बनाती, वह मुक्त भी करती है। उपासना का आदि-चरण है। श्रवण-सुनना और अंतिम चरण है-निर्वाण
उपासना के दस फल ये हैं :
१. श्रवण-तत्त्वों को सुनना ।
२. ज्ञान-सत् और असत् का विवेक ।
३. विज्ञान-तत्त्वों का सूक्ष्म और तलस्पर्शी ज्ञान ।
४. प्रत्याख्यान - हेय का त्याग और उपादेय का स्वीकार । ५. संयम - आत्माभिमुखता ।
६. अनाश्रव - कर्म आने के मार्गों का अवरोध ।
७. तप- आत्मा को विजातीय तत्त्व से वियुक्त कर अपने आप में युक्त करना। यह बारह प्रकार का है।
८. व्यवदान - पूर्व संचित कर्मों के क्षय होने से होने वाली विशुद्धि ।
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९. अक्रिया - आत्मा के समस्त कर्म जब पृथक् हो जाते हैं तब मन, वाणी और शरीर की प्रवृत्ति रुक जाती है, वह अक्रिया है।
१०. निर्वाण - आत्मा का पूर्ण उदय, कर्मों का सर्वथा विलय ।
सत्संगति का एक क्षण भी संसार सागर से पार कर देता है। नारद ने भगवान् से कहा- मुझे मुक्ति दो भगवान् ने कहा-मैं स्वर्ग दे सकता हूं, और कुछ दे सकता हूं, किन्तु मुक्ति नहीं । मुक्ति के लिए संतों के पास जाओ।' संत वह है जिसने सत्य का साक्षात्कार कर लिया है। संत होने का अर्थ है-अपने पूरे जीवन को सत्य के लिए समर्पित करना, परमात्मा के सिवाय और कुछ नहीं चाहना अस्तित्व के उद्घाटन में जो अपने जीवन को लगा देता है, जिसने सत्य साक्षात्कार कर लिया ऐसे व्यक्ति के समीप होने का अर्थ है-उपासना उसके पास धर्म होता है वह धर्म सुना सकता है। जिसके पास धर्म न हो, वह धर्म कैसे दे सकता है ? महावीर कहते हैं- संत की उपासना से व्यक्ति को धर्म का सुनना मिलता है।
जीवन में सबसे पहला कदम ही मुख्य होता है। अगर वह गलत दिशा में उठ जाता है तो आदमी भटक जाता है। यदि वह सही दिशा में उठ जाए तो मंजिल निकट हो जाती है। यह कहना चाहिए कि प्रथम कदम में ही प्रायः व्यक्ति चूक जाता है। इस उलझन भरे विश्व में सही दिशाबोधक कठिनतम है एक कवि ने कहा है-'कुछ व्यक्ति अज्ञान के कारण नष्ट होते हैं, कुछ व्यक्ति प्रमाद के कारण नष्ट होते हैं, कुछ ज्ञान के अवलेप (विद्या के घमंड के कारण नष्ट होते हैं और कुछ दूसरे नष्ट व्यक्तियों के संपर्क में आकर नष्ट होते हैं।' धर्म की दिशा में पहला पाठ ठीक मिल जाए तो आत्म-दर्शन कोई असाध्य नहीं है।
महावीर ने इसकी पूरी कड़ी प्रस्तुत की है। धर्म के श्रवण से उसका ज्ञान होता है और उस ज्ञान से व्यक्ति को विज्ञान - सत्यासत्य के निर्णय की क्षमता मिलती है। वह असत्य को असत्य और सत्य को सत्य देख लेता है। फिर उसके प्रत्याख्यान होता है। वह असत्य के आवरण-जाल से मुक्त हो जाता है। फिर उसके संयम होता है। वह स्वभाव में चला आता है। स्वभाव में स्थिर होने पर विजातीय तत्त्वों के आगमन का द्वार बन्द हो जाता है। भीतर तप की अग्नि प्रज्व हो जाती है। वह अग्नि कर्म (विजातीय मल) को जलाकर भस्म कर देती है। साधक शुद्ध हो जाता है। वह स्वयं के ही स्वभाव से छलाछल भर जाता है और पूर्ण अक्रिय हो जाता है। यह समुचित कदम का सुफल है।