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संबोधि
१४. निश्चये व्रतमापन्नो, व्यवहारपटुः समभावमुपासीनोऽनासक्तः
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गृही। कर्मणीप्सिते ॥
॥ व्याख्या ॥
श्रावक एक सामाजिक व्यक्ति होता है। उस पर घरेलू, सामाजिक और राजनैतिक जिम्मेदारियां भी होती हैं। धर्म की आराधना करता हुआ वह उनसे विमुख नहीं हो सकता संयम और व्रत-त्याग में निष्ठा रखता हुआ भी व्यवहार जगत् से अपने संबंध बनाये रखता है। लेकिन अंतर इतना है कि यदि वह संयमयुक्त है तो गृह कार्य करता हुआ भी उनमें अनुरक्त नहीं होता; जबकि एक असंयमवान व्यक्ति उन्हीं कार्यों में रचा-पचा रहता है। आचार्य पूज्यपाद ने कहा- 'जो केवल व्यवहार जगत् में जागरूक रहता है, वह आत्म-जगत् की दृष्टि से सुप्त है और जो आत्म जगत् में जागृत रहता है वह व्यवहार जगत् में सुप्त है। आत्म जगत् में जागृत रहने से हमारा व्यवहार बंद नहीं होता, किन्तु व्यवहार में जो आसक्ति होती है वह खत्म हो जाती है।.
अ. १५ : गृहिधर्मचर्या
जो गृहस्थ अंतरंग में व्रतयुक्त है और व्यवहार में पटु है, वह समभाव की उपासना करता हुआ इष्टकार्य में आसक्त नहीं होता।
साधक के लिए व्यवहार गौण है और आत्मा प्रधान है। वह आत्म-हित को खोकर कहीं प्रवृत्त नहीं हो सकता । · भगवती आराधना में कहा है- 'आभ्यन्तर शुद्धि के साथ बाह्य-व्यवहार-शुद्धि तो अवश्यंभावी है । बहिरंग दोष इस बात के प्रमाण हैं कि व्यक्ति भीतर में शुद्ध नहीं है।' व्यवहार-शुद्धि धोखा भी हो सकती है। गृहस्थ श्रावक जो अपनी अंतश्चेतना में उतर गया, वह बाहर में लिप्त नहीं होता।
'अभोगी नोवलिप्यह' - आत्मानुरक्त व्यक्ति उपलिप्त नहीं होता। जीवनचर्या उसकी भी होती है, वह व्यवहार में कार्य भी करता है, किन्तु अपने केन्द्र को छोड़ता नहीं।
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१५. अज्ञानकष्टं कुर्वाणा, हिंसयां मिश्रितं बहु मुमुक्षां दधतोऽप्येके, बध्यन्तेऽज्ञानिनो जनाः ॥
१६. कर्मकाण्डरताः केचिद्, हिंसां कुर्वन्ति मानवाः । स्वर्गाय यतमानास्ते, नरकं यान्ति दुस्तरम् ॥
अविवेकपूर्ण ढंग से बहुत सारे हिंसा मिश्रित कष्टों को झेलने वाले अज्ञानी लोग मुक्त होने की इच्छा रखते हुए भी कर्मों से आबद्ध होते हैं।
क्रियाकाण्ड में आसक्त होकर जो लोग हिंसा करते हैं, वे स्वर्ग-प्राप्ति का प्रयत्न करते हुए भी दुस्तर नरक को प्राप्त होते हैं।
॥ व्याख्या ॥
महावीर कंष्ट सहिष्णु थे और कष्टों के आमंत्रक भी थे। समागत या आमंत्रित कष्टों में उनकी धृति अविच्युत थी। उनकी दृष्टि आत्मा पर थी। वे आत्म-निखार में सतत जागरूक थे। इसलिए उन्होंने आत्म-विस्मृत होकर कष्ट सहने का समर्थन नहीं किया? और न हिंसापूर्ण वृत्तियों का रत्नसार में आचार्य कहते हैं-क्रोध को दंडित नहीं कर शरीर को दंडित करना बुद्धिमानी नहीं है। उससे शुद्धि नहीं होती। सांप को न मार कर सर्प के बिल पर मार करने से सर्प नहीं मारा . जाता।' केवल देह-दंड से नहीं, आंतरिक कषाय शत्रुओं को परास्त करने से ही आत्म-बोध संभव है । जिस प्रक्रिया से दूसरों को उत्पीड़न न हो और विजातीय तत्त्व का रेचन हो, वह तप है। आत्म-बोध यदि तप से नहीं होता है तो वह तप अज्ञान तप की कोटि में चला जाता है। महावीर अज्ञान तप के प्रशंशक नहीं; अपितु उसके प्रबल विरोधक थे। वे शुद्ध क्रिया के समर्थक थे। चाहे कोई भी व्यक्ति कहीं पर करता हो, उनकी दृष्टि में वह समादरणीय था। अनेक अन्य मतावलंबी व्यक्तियों की भी महावीर ने प्रशंसा की थी। किन्तु हिंसापूर्ण क्रिया और आत्मज्ञान को आवृत करने वाले कार्यों से वांछित वस्तु की प्राप्ति को वे असंभव मानते थे ।
वे ही क्रियाकांड महत्त्वपूर्ण और उपादेय हैं जो व्यक्ति को आत्मा के निकट ले जाते हैं जिनसे आत्मा दूर होती है। वे कैसे उपादेय हो सकते हैं।' योगसार में कहा है-'गृहस्थ हो या साधु, जो आत्मस्थ होता है, वही सिद्धि - सुख को प्राप्त कर सकता है, ऐसा जिन-भाषित है।' परमात्म प्रकाश में कहा है- 'संयम, शील, तप, दर्शन और ज्ञान सब आत्म शुद्धि में