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आत्मा का दर्शन
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खण्ड-३
है। आत्म-शुद्धि से ही कर्मक्षय होता है, इसलिए आत्म-शुद्धि प्रधान है।' महावीर कहते हैं-गलत दिशा में चलकर कोई भी व्यक्ति अभीष्ट को प्राप्त नहीं कर सकता। इससे तो वह वहीं पहुंचता है जहां पहुंचना नहीं चाहता। साध्य और साधन-दोनों की शुद्धि अत्यंत अपेक्षित है। १७.आत्मानः सदृशाः सन्ति, भेदो देहस्य दृश्यते। स्वरूप की दृष्टि से सब आत्माएं समान हैं। उनमें केवल आत्मनो ये जुगुप्सन्ते, महामोहं व्रजन्ति ते॥ शरीर का अन्तर होता है। जो आत्माओं से घृणा करते हैं, वे
महा-मोह में फंस जाते हैं। १८.उच्चगोत्रो नीचगोत्रः, सामग्रया कथ्यते जनैः। प्रशस्त सामग्री के प्राप्त होने से आत्मा उच्चगोत्र वाला और न हीनो नातिरिक्तश्च, क्वचिदात्मा प्रजायते॥ अप्रशस्त सामग्री के प्राप्त होने से वह नीचगोत्र वाला कहलाता
है। वस्तुतः कोई भी आत्मा किसी भी आत्मा से न उच्च है और न नीच।
१९.प्रज्ञामदं नाम तपोमदञ्च,
धीर पुरुष वह होता है जो बुद्धि, तप. और गोत्र के मद का ___ निर्णामयेद् गोत्रमदञ्च धीरः। उन्मूलन करे। जो दूसरे को प्रतिबिम्ब की भांति तुच्छ मानता है, अन्यं जनं पश्यति बिम्बभूतं,
उसके लिए जाति या कुल शरणभूत नहीं होते। न तस्य जातिः शरणं कुलं वा॥
॥ व्याख्या ॥ जो धार्मिक हैं, किन्तु जिनके अज्ञान का आवरण हटा नहीं है, वे धार्मिक होते हुए भी वृत्तियों से धार्मिक नहीं होते। उनकी दृष्टि अभी बाहर स्थित है। वे बाह्य वातावरण से प्रभावित हैं तथा बाह्य वस्तुओं के संयोग-वियोग से महान् और क्षुद्र की कल्पनाएं करते हैं। धर्म का अभ्युदय होने पर बाह्य-वस्तुओं का वैशिष्ट्य समाप्त हो जाता है। एक साथ दो चीजें नहीं रह सकती। जीसस ने कहा है-'कोई दो स्वामियों की सेवा एक साथ नहीं कर सकता। चाहे ईश्वर की आराधना करो या कुबेर की। ईश्वर चाहता है-त्याग और समर्पण, और कुबेर चाहता है-संग्रह तथा शोषण।' एक और भी उनका महत्त्वपूर्ण वचन है-'मैं तुम्हारा भगवान् बड़ा मानी हूं। मैं किसी दूसरे की सत्ता को नहीं सह सकता। चाहे तुम मुझे प्रसन्न कर लो या शैतान को।' धर्म की ज्योति प्रज्वलित होने के बाद भेदों की दीवार खड़ी नहीं रह सकती। धुएं की दीवार के लिए तेज हवा का झोंका पर्याप्त है। मायाजन्य मान्यताएं-मैं बड़ा हूं, विद्वान हूं, पूज्य हैं, उच्च हूं-आदि ज्ञान के प्रकाश में कब तक टिक सकती है? व्यक्ति दूसरों को तुच्छ और घृणित तब तक ही समझता है जब तक उसे स्वयं का बोध नहीं है। मंसूर एक महान् सूफी साधक हुआ है। उसने कहा-'अगर परमात्मा भी मुझे मिल जाय तो क्षमा नहीं मांगनी पड़ेगी, क्योंकि उसके सिवा मैंने किसी में कुछ देखा ही नहीं।' जो सबमें आत्मा को देखने लगता है वह कैसे दूसरों का तिरस्कार कर सकेगा? आत्म-बुद्धि जागृत हो जाए तब द्वैत का प्रश्न नहीं उठता। किन्तु उससे पूर्व भी यदि धार्मिक व्यक्ति दूसरों में आत्मा-परमात्मा को देखने लगे तो अनेक आंतरिक और बाह्य समस्याएं तिरोहित हो सकती हैं और वह व्यर्थ के क्षुद्रतम पापों से निवृत्त रह सकता है।
२०.नात्मा शब्दो न गन्धोऽसौ,रूपं स्पर्शो न वा रसः। आत्मा न शब्द है, न गंध है, न रूप है, न स्पर्श है, न रस है, न वर्तुलो न वा यस्रः, सत्ताऽरूपवती ह्यसौ॥ न वर्तुल-गोलाकार है और न त्रिकोण है। वह अमूर्त सत्ता है।
॥ व्याख्या ॥ वृहदारण्य उपनिषद् में जनक याज्ञवल्क्य से पूछता है कि आत्मा क्या है ? याज्ञवल्क्य ने कहा-जो वह विज्ञानस्वरूप और ज्योतिर्मय है वह आत्मा है। यह आत्मा के शुद्ध स्वरूप का निरूपण है। क्या आत्मा के शरीर, वाणी, मन, बुद्धि, आंख, नाक, कान, हाथ, पैर, मुंह, आदि है ? इनके उत्तर में हम वेदों में 'नेति' पाते हैं। ये आत्मा नहीं हैं। इनसे आत्मा का बोध होता है।