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संबोधि
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अ. १५ : गृहिधर्मचर्या
आत्मा अमूर्त है। शरीर, इन्द्रिय इत्यादि मूर्त हैं। मूर्त वस्तु अमूर्त को ग्रहण नहीं कर सकती। आकार-प्रत्याकार पौद्गलिक वस्तुओं के होता है, चेतन में नहीं। आत्मा की खोज आत्मा से ही होती है। प्रश्नोपनिषद् में कहा है-'तप, ब्रह्मचर्य, श्रद्धा और विद्या से आत्मा की खोज करो।'
शब्दों का प्रयोग करने वाला, गंध का अनुभव करने वाला, स्पर्श और रस की अनुभूति करने वाला आत्मा है। शरीर की लंबी-चौड़ी रचना में आत्मा का योग है। जड़ शरीर में संवर्धन की शक्ति नहीं है। आत्मा अक्षुण्ण है। उसमें घटने और बढ़ने की क्रिया नहीं होती। २१.न पुरुषो न वापि स्त्री, नैवाप्यस्ति नपुंसकम्। आत्मा न पुरुष है, न स्त्री है और न नपुंसक। वह विचित्र विचित्रपरिणामेन, देहेऽसौ परिवर्तते॥ परिणतियों द्वारा शरीर में परिवर्तित होता रहता है।
॥ व्याख्या ॥ पुरुष, स्त्री आदि शब्दों का व्यवहार शरीर-रचना सापेक्ष है। शरीर आत्मा नही है किंतु आत्मा का निवासस्थान है। आत्मा विभिन्न शरीरों को धारण कर तद्रूप बन जाती है। उसे अनेक संज्ञाएं मिल जाती हैं। लेकिन आत्मा इन सबसे पृथक् है। वह चिदानंद स्वरूप है। २२. असवर्णः सवर्णो वा, नासौ क्वचन विद्यते। आत्मा न सवर्ण है और न असवर्ण। वह स्वरूप की दृष्टि से अनन्तज्ञान-सम्पन्नः, संपर्येति शुभाशुभैः॥ अनन्तज्ञान से युक्त है। शुभ, अशुभ कर्मों के द्वारा बद्ध होने के
कारण वह संसार में परिभ्रमण करता है।
॥ व्याख्या ॥ वर्णसंकर-स्वर्णिक और स्पृश्य-अस्पृश्य की मान्यताएं तात्त्विक नहीं हैं। ये व्यवहार-भेद पर आश्रित हैं। आत्मा अनंत ज्ञानमय है। वह एक स्पृश्य में है, वैसे ही अस्पृश्य में है। मनुष्येतर प्राणियों में भी आत्मा के मूलरूप में कोई अंतर नहीं है। गीता कहती हैं-पंडित लोग सुशिक्षित और विनयशील ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ते या चांडाल को समान दृष्टि से देखते हैं। २३. गेहाद् गेहान्तरं यान्ति, मनुष्याः गेहवर्तिनः। घर में रहने वाले मनुष्य जैसे एक घर को छोड़कर दूसरे घर ____ देहाद् देहान्तरं यान्ति, प्राणिनो देहवर्तिनः॥ में जाते हैं उसी प्रकार शरीर में रहने वाली प्राणी एक शरीर को
छोड़कर दूसरे शरीर में जाते हैं।
॥ व्याख्या ॥ शुद्ध आत्मा का संसरण नहीं होता। शरीरधारी आत्मा संसरण करती है। एक शरीर को छोड़कर अन्य शरीर धारण करने से आत्मा का स्वभाव परिवर्तन नहीं होता। यदि शरीर के साथ आत्मा का विनाश माना जाये तो उसका चैतन्य स्वरूप नहीं रह सकता।
चैतन्य आत्मा का अनन्य सहचारी धर्म है। वह कभी पृथक् नहीं हो सकता। आत्मा अजर और अमर है। गीता में भी कहा है-'वह कभी जन्म नहीं लेता और न कभी मरता ही है। उसका अस्तित्व कभी समाप्त नहीं होता। वह अजन्मा, शाश्वत, नित्य और प्राचीन है। शरीर के मर जाने पर भी वह नहीं मरता। २४.नासौ नवो नवा जीर्णो, नवोपि च पुरातनः। आत्मा न नया है और न पुराना-यह द्रव्यार्थिक दृष्टि है। आत्मा
आधा द्रव्यार्थिकी दृष्टिः पर्यायार्थगता परा॥ नया भी है और पुराना भी यह पर्यायार्थिक दृष्टि है।
२५.नवोऽपि च पुराणोऽपि, देहो भवति देहिनाम्।
शैशवं यौवनं तत्र, वार्धक्यञ्चापि जायते॥
जीवों का शरीर नया भी होता है और पुराना भी। शरीर में शैशव, यौवन और वार्धक्य-बुढ़ापा भी होता है।