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________________ आत्मा का दर्शन ३६० ॥ व्याख्या ॥ आत्मा पहले भी थी, आज भी है और आगे भी रहेगी। नये और पुराने का व्यवहार आत्मा में इसलिए नहीं होता कि वह सर्वकालिक है न उसका स्वरूप पुराना होना है न नया। दोनों शब्द सापेक्ष हैं। एक रूप को छोड़कर दूसरे रूप में आना नया है और जिसे छोड़ा जाता है वह पुराना है। आत्मा में वैसा नहीं होता । द्रव्यार्थिकदृष्टि से वस्तु का स्वभाव-धर्म अपरिवर्तित होता है। खण्ड-३ पर्यायार्थिकदृष्टि भिन्न है वह पदार्थों की अवस्थाओं को देखती है। अवस्थाएं बदलती है अतः नये और पुराने शब्दों का व्यवहार इसमें हो जाता है। आत्मा एक अवस्था का त्याग कर दूसरी अवस्था में आती है तब वह पहले की अपेक्षा नयी है और नये की अपेक्षा पुरानी शैशव, यौवन और बुढ़ापा एक ही शरीर की तीन अवस्थाओं से आत्मा में बालक, युवक और वृद्ध शब्दों का व्यवहार हो जाता है। गीता कहती है-'इस शरीर में आत्मा बचपन, यौवन और वार्धक्य में से गुजरती है। यह शरीर की दशा है। आत्मा उसमें वही है। शरीर का अंत हो जाता है तब आत्मा नये शरीर को बना लेती है। यह क्रम मुक्ति के अनंतर रुक जाता है। प्राणों के वियोजन से धीर मनुष्य खिन्न नहीं होते। वे सत्य को जानते हैं। २६. देहस्योपाधिभेदेन यो वात्मानं जुगुप्सते । नात्मा तेनावबुद्धोऽस्ति नात्मवादी स मन्यताम् ॥ शरीर की भिन्नता होने के कारण जो दूसरी आत्मा से घृणा करता है, उसने आत्मा को नहीं जाना। उसे आत्मवादी नहीं मानना चाहिए। ॥ व्याख्या ॥ शरीर की भिन्नता के पीछे आत्मा की भिन्नता नहीं है। आत्मा एक है, सदृश है। जिसे आत्मा ज्ञात है, दृष्ट है वह आकृति को महत्त्व नहीं देता और न शरीर भेद के आधार पर किसी का आदर और अनादर करता है शरीर को महत्त्व देने का अर्थ है-राग-द्वेष को महत्त्व देना। देहाश्रित सम्मान व अपमान दोनों ही उसके लिए बंधन के कारण होते हैं। आत्मवादी बाह्य को प्राधान्य नहीं देता। वह जानता है, समझता है कि यह आकार भेद है, चैतन्य भेव नहीं किन्तु अनात्म- द्रष्टा की दृष्टि ऊपर की ओर नहीं उठती। वह इन्द्रियों के पार के जगत् को देखने में सक्षम नहीं होती। इसलिए वह बाहर ही उलझा रहता है। - जनक की सभा में स्वयं को आत्मवादी मानने वाले अनेक विद्वज्जन सम्मिलित हुए। तर्क-वितर्क भी चल रहे थे। अष्टावक्र मुनि के पिता भी वहीं थे। वे पराजित हो रहे थे । अष्टावक्र को पता चला। वे जनक की सभा में आए। विद्वानों ने देखा अष्टावक्र को, जो आठ स्थानों से टेड़े-मेढ़े थे। सभी विद्वान खिल-खिलाकर हंसने लगे। अष्टावक्र ने राजा जनक से कहा- 'क्या यह चमारों की सभा है? केवल मेरी चमड़ी को देखने वाले चमार ही हो सकते हैं।' सभी सभासद् अवाक् रह गए। जनक को लगा यह बालक ज्ञानी है। उसने सिंहासन से नीचे उतर कर निवेदन किया-महलों में पधारें और मेरी जिज्ञासाओं का समाधान करें। 'अष्टावक्र गीता' इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है । मेघः प्राह २७. विशालवपुषः केचित् केचित् तुच्छशरीरकाः । किमस्ति सदृशो दोषः, तेषां प्राणातिपातने ? उम्मर खय्याम ने कहा है- जब मैं जवान था तो बहुत पंडितों के द्वार पर गया, वे बड़े ज्ञानी थे। मैंने उनकी चर्चा सुनी, पक्ष-विपक्ष में विवाद सुने। जिस दरवाजे से गया, उसी दरवाजे से वापस लौट आया। मेघ बोला- कुछ जीवों का शरीर विशाल है और कुछ जीवों का शरीर छोटा है। क्या उनकी हिंसा में दोष एक जैसा होता है?
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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