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संबोधि
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अ. १५ : गृहिधर्मचर्या भगवान् प्राह २८.ये केचित् क्षुद्रका जीवा, ये च सन्ति महालयाः। भगवान् ने कहा-कुछ जीवों का शरीर छोटा है और कुछ का तद्वधे सृदशो दोषोऽसदृशो वेति नो वदेत्॥ बडा। उन्हें मारने में समान पाप होता है या असमान-इस प्रकार
नहीं कहना चाहिए।
॥ व्याख्या ॥ यहां यह बताया गया है कि शरीर के छोटे-बड़े आकार पर हिंसा-जन्य पाप का माप नहीं हो सकता। जो व्यक्ति यह मानते हैं कि छोटे प्राणियों की हिंसा में कम पाप होता है और बड़े प्राणियों की हिंसा में अधिक पाप होता है, भगवान् महावीर की दृष्टि से यह मान्यता सम्यक् नहीं है। पाप का संबंध जीव-वध से नहीं किन्तु भावना से है। भावों की क्रूरता से जीव-हिंसा के बिना भी पापों का बंधन हो जाता है। मन, वाणी और शरीर की हिंसासक्त चेष्टा से छोटे जीव की हिंसा में भी पाप का बंध प्रबल हो जाता है और परिणामों की मंदता से वहां बड़े जीव की हिंसा में भी पाप का बंध प्रबल नहीं होता। अल्पज्ञ व्यक्तियों के लिए यह कहना कठिन है कि 'पाप कहां अधिक है और कहां कम।' परिणामों की तरतमता ही न्यूनाधिकता का कारण है। २९.हंन्तव्यं मन्यसे यं त्वं, स त्वमेवासि नापरः। जिसे तू मारना चाहता है वह तू ही है कोई दूसरा नहीं है।
यमाज्ञापयितव्यञ्च, स त्वमेवासि नापरः॥ जिस पर तू अनुशासन करना चाहता है, वह तू ही है, कोई दूसरा ३०. पारितापयितव्यं यं, स त्वमेवासि नापरः।
___ नहीं है। जिसे तू संतप्त करना चाहता है, वह तू ही है, कोई दूसरा
नहीं। जिसे तू दास-दासी के रूप में अपने अधीन करना चाहता यञ्च परिग्रहीतव्यं, स त्वमेवासि नापरः॥
है, वह तू ही है, कोई दूसरा नहीं। जिसे तू पीड़ित करना चाहता है, ३१.अपद्रावयितव्यं यं, स त्वमेवासि नापरः। वह तू ही है, कोई दूसरा नहीं। सब जीवों में संवेदन-कष्टानुभूति अनुसंवेदनं ज्ञात्वा, हन्तव्यं नाभिप्रार्थयेत्॥ होती है. यह जानकर किसी को मारने की इच्छा न करे।
(त्रिभिर्विशेषकम्)
रापकम्
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॥ व्याख्या ॥ आत्मवादी के लिए कोई 'दूसरा' नहीं होता और अनात्मवादी के लिए कोई 'एक' नहीं होता। एक बाहर देखता है और एक भीतर। जो भीतर उतरा, उसने पाया अभेद और जो बाहर खोजता रहा उसने पाया भेद। असुर और देवता एक 'आत्मद्रष्टा ऋषि के पास पहुंचे। ऋषि से आत्मबोध की याचना की। संत ने कहा-'तत्त्वमसि'-जिसे खोज रहे हो वह तुम
ही हो। दोनों चले आए। दोनों को संतोष हो गया कि यह देह ही आत्मा है। दोनों भोग-विलास में मस्त हो गए। किन्तु देवता को संतोष नहीं हुआ। उसे लगा-गुरु संत इस शरीर के लिए नहीं कह रहे हैं। यह शरीर तो प्रत्यक्ष मरणधर्मा है। वह आया और पूछा-क्या आपका अभिप्राय आत्मा शब्द से शरीर से है ? किन्तु शरीर विनश्वर है, आत्मा नहीं। संत ने उसी तत्त्व का उपदेश फिर दिया-वह तू ही है। प्राण के विषय में सोचा, किन्तु लगा प्राण तो उससे ही स्पंदित होते हैं। वह न हो तो प्राणों का क्या मूल्य! फिर मन के संबंध में सोचा। मन चंचल हैं। प्रतिक्षण बदलता रहता है। वह आत्मा तो अपरिवर्तनीय है। मैं मन से पार जो अनंत शक्ति सम्पन्न, अजर, अमर है 'वह हूं।' जिज्ञासा से अपने भीतर जो था उसे खोज लिया। असुर देह पर रुक गए। देवता मंजिल पर पहुंच गए। देवता अभेद में जीने लगे और असुर द्वैत में।
महावीर का यह स्वर पूर्ण अद्वैतवाद का है। वे कह रहे हैं-दूसरा कोई नहीं है। किन्तु जिनकी प्रज्ञा-चक्षु निमीलित है, वे बाह्य भेद के आधार पर दूसरों का उत्पीड़न करते हैं, शोषण करते हैं। उन्हें अपने अधीनस्थ बनाते हैं और उन पर अनुशासन करते हैं। वस्तुतः वे स्वयं की हिंसा करते हैं; स्वयं को पीड़ित करते हैं। स्वयं की असत् प्रवृत्ति से स्वयं ही बंधन में फंसते हैं। प्रत्येक आत्मा पूर्ण स्वतंत्र है। दूसरों के निमित्त से हम अज्ञानवश स्वयं को दंड देते हैं। ज्ञान के प्रकाश में गल्ती करने वाला दंडनीय है। उसे बोध नहीं है। वह तो करुणा का पात्र है। उस पर क्रोध कर स्वयं को दंड नहीं दिया जाए। खलील जिब्रान ने कहा है-'अच्छी तरह आंख खोलकर देख, तुझे हर सूरत में अपनी सूरत नजर आएगी। अच्छी तरह कान खोल कर सुन, तुझे हर आवाज में अपनी आवाज सुनाई देगी।'