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आत्मा का दर्शन
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खण्ड-३
हजारों वर्षों से संकल्प का महत्त्व समझाते आ रहे हैं। आज वैज्ञानिकों ने मानस की अपार क्षमता को परखा है और वे कहते हैं-'तुम अपने संकल्प से भिन्न कुछ नहीं हो।' श्रावक आत्म-शोधन करता हुआ संकल्पवान बने। उसे क्या करना है और क्या होना है, भगवान् ने इसका जो उत्तर दिया वह इस अध्याय के दसवें श्लोक में है। ५. स्थैर्य प्रभावना भक्तिः , कौशलं जिनशासने। धर्म में स्थिरता, प्रभावना-धर्म का महत्त्व बढ़े वैसा कार्य तीर्थसेवा भवन्त्येता, भूषाः सम्यग्दृशो ध्रुवम्॥ करना, धर्म या धर्म-गुरु के प्रति भक्ति रखना, जैन शासन में
कौशल प्राप्त करना और तीर्थसेवा-चतुर्विध संघ को धार्मिक सहयोग देना ये सम्यक्त्व के पांच भूषण हैं।
॥ व्याख्या ॥ सम्यक्त्व का शरीर सहज, सुन्दर होता है। जिसे वह प्राप्त है उसकी सुगंध स्वतः ही प्रस्फुटित होती है। उसका जीवन स्वयं ही एक पाठ है। वह जो कुछ करता है समभाव से भिन्न नहीं करता, दिखावा नहीं करता। जिसका होना ही धर्म को अभिव्यक्त करता है, उसका व्यवहार, आचरण भीतर से स्फूर्त होता है। कथनी और करनी में वैमनस्य का दर्शन नहीं होता। स्वभाव का स्वाद जिसने चख लिया है, वह फिर उससे भिन्न जी नहीं सकता। जो केवल बाहर से सम्यक्त्व का चोला पहन लेते हैं, उनका जीवन इनसे मेल नहीं खाता। वे अपने स्वार्थ के लिए अन्यथा आचरण कर धर्म को भी दूषित कर देते हैं। सम्यक्त्व के ये भूषण उसके शरीर की आभा को और प्रस्फुटित कर देते हैं। सौम्यता, सौहार्द, करुणा, निश्छलता और सत्यपूर्ण व्यवहार धर्म की शोभा में चार चांद लगा देते हैं।
६. भारवाही यथाश्वासान, भाराक्रान्तेऽश्नुते यथा।
तथारम्भभराक्रान्त, आश्वासान् श्रावकोऽश्नुते॥
जिस प्रकार भार से लदा हुआ भारवाहक विश्राम लेता है, उसी प्रकार आरंभ-हिंसा के भार से आक्रांत श्रावक विश्राम लेता है। .
७. इन्द्रियाणामधीनात्वाद्, वर्ततेऽवद्यकर्मणि।
तथापि मानसे खेदं, ज्ञानित्वाद् वहते चिरम्॥
इंद्रियों के अधीन होने के कारण वह पापकर्म-हिंसा-त्मक क्रिया में प्रवृत्त होता है, फिर भी ज्ञानवान होने के कारण वह उस कार्य में आनंद नहीं मानता, उदासीन रहता है।
व्रत आदि स्वीकार करना श्रावक का पहला विश्राम है। सामायिक करना दूसरा विश्राम है।
८. आश्वासः प्रथमः सोऽयं, शीलादीन् प्रतिपद्यते।
सामायिकं करोतीति, द्वितीयः सोऽपि जायते॥
प्रतिपूर्ण पौषधञ्च, तृतीयः स्याच्चतुर्थकः। संलेखना श्रितो यावज्जीवमनशनं सृजेत्॥
उपवासपूर्वक पौषध करना तीसरा विश्राम है और संलेखनापूर्ण आमरण अनशन करना चौथा विश्राम है।
॥ व्याख्या ॥ मकान, धर्मशाला, वृक्ष, नदी-तट आदि शारीरिक विश्राम-स्थल हैं। धर्म आत्म-विश्राम का केन्द्र है। गृही-जीवन आरंभ-व्यस्त जीवन है। वहां आत्म-साधना के लिए अवकाश कम मिलता है। मनुष्य का मन मोह-प्रधान है। उसे भोग, वासना और विषयों से जितना अनुराग होता है उतना धर्म से नहीं। धर्म के बिना आत्मा को शांति नहीं मिलती। श्रावक संसार के कार्यों में उलझा हुआ भी धर्म को विस्मृत नहीं करता। वह अपने और पराये व्यक्तियों के लिए हिंसा करता हुआ भी उसमें लिप्त नहीं होता। वह मानता है कि मेरी दुर्बलता है। वह उदासीन होकर काम करता है। उसका केन्द्र-बिन्दु आत्मा है। वह आत्म-शांति के लिए जो अवलंबन लेता है वे ही विश्राम-स्थल हैं।
जैसे भारवाहक के चार विश्राम-स्थल हैं :-१. गठरी को बाएं से दाएं कंधे पर रखना। २. देह-चिंता से निवृत्त होने