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________________ संबोधि ३५३ अ. १५ : गृहिधर्मचर्या जर्मन विचारक हैरीगेली धनुर्विद्या सीखने जापान आया तीन साल श्रम किया अचूक निशानेबाज हो गया। फिर भी गुरु ने कहा- अभी कुछ नहीं हुआ। अभी तू चलाता है, तीर चलता नहीं। थक गया। कहा- अब मैं आज जाता हूं। उसने * घर जाने की सब तैयारी कर ली । विदा लेने आया। गुरु सिखा रहे थे। बैठ गया। अचानक उठा और तीर उठाकर चल दिया। गुरु ने कहा- हो गया काम। इतने दिन प्रयत्न में था, आज अप्रयत्न में।' साधक के लिए यह बहुत बड़ा पाठ है जो उसे पढ़ना है। २. यथाहारादि कर्माणि भवन्त्यावश्यकानि च । तथात्माराधनं चापि, भवेदावश्यकं परम् ॥ " ३. सद्यः प्रातः समुत्थाय स्मृत्वा च परमेष्ठिनम् । प्रातः कृत्यान्निवृत्तः सन् कुर्यादात्मनिरीक्षणम् ॥ जिस प्रकार भोजन आदि क्रियाएं आवश्यक होती हैं, उसी प्रकार आत्मा की साधना करना भी अत्यंत आवश्यक है। सवेरे जल्दी उठकर नमस्कार मंत्र का स्मरण कर, शौच आदि प्रातःकृत्य से निवृत्त होकर मनुष्य आत्म-निरीक्षण करे। ॥ व्याख्या ॥ आत्म-निरीक्षण के लिए एक कवि ने कहा है-सूर्य जीवन का एक भाग लेकर चला जा रहा है उठो और देखो, आज कौन सा सुकृत काम किया है।' यह धर्म का एक अंग है। सबके लिए इसकी अपेक्षा है। किन्तु एक धार्मिक व्यक्ति के लिए अति आवश्यक है। आत्मदर्शन के बिना वृत्तियों का परिमार्जन नहीं होता। इसके लिए तीन चिंतन हैं १. मैंने क्या क्रिया है ? २. मेरे लिए क्या करना बाकी है? ३. ऐसा कौन-सा कार्य है जिसे मैं नहीं कर सकता? जैसे शरीर के लिए आवश्यक किए जाते हैं वैसे आत्मा के लिए भी होने चाहिए एक विचारक ने कहा है मनुष्य शरीर को खुराक देता है, किन्तु आत्मा को नहीं।' आत्मा को बिना भोजन दिए मनुष्य का जीवन अंत में अर्थहीन सिद्ध होता है उसमें रस उत्पन्न नहीं होता। आदमी करीब-करीब मरा हुआ जीता है। इसीलिए यहां कहां गया है कि अपने को देखो, जानो। ४. सामायिकं प्रकृर्वीत, समभावस्य लब्धये । भावना भावयेत् पुण्याः, सत्संकल्पान् समासजेत् ॥ मैं कौन हूं? कहां से आया हूं? क्या है जीवन का उद्देश्य ? क्या मैं उसकी पूर्ति का प्रयत्न कर रहा हूं ? ये कुछ ऐसे प्रश्न है जो स्वयं से पूछने को हैं उत्तर की जल्दी नहीं करना है, प्रश्नों की प्यास बढ़ानी है। समभाव की प्राप्ति के लिए सामायिक' करे, आत्मा को पवित्र भावनाओं से भावित करे और शुभ संकल्प करे । ॥ व्याख्या ॥ संकल्प का अर्थ है दृढ निश्चय हम क्या हैं? अपने संकल्पों से भिन्न और कुछ नहीं हैं। जैसे हम संकल्प करते हैं वैसे ही बन जाते हैं अच्छे संकल्प अच्छा बनाते हैं, बुरे संकल्प बुरा मनुष्य अच्छा बनने के लिए बुरे संकल्पों के स्थान पर अच्छों को स्थानं दे। मैं दीन हूं, दुर्बल हूं, अज्ञ हूं, रोगी हूं, दुःखी हूं, अभागा हूं आदि हीन संकल्प मनुष्य को वैसा ही बना देते हैं। यदि इनके स्थान पर मनुष्य पवित्र संकल्पों को संजोए तो वह स्वस्थ, सशक्त, विज्ञ, सुखी और सौभाग्यशाली बन सकता है। 'मेरा मन पवित्र संकल्प वाला हो। हम दीन बन कर न जिएं। कार्य करते हुए हम सौ वर्ष तक जिएं'- ये क्या हैं जो १. सामायिक- एक मुहूर्त्त तक सावध प्रवृत्ति-अठारह प्रकार के पाप का परित्याग ।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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