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संबोधि
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॥ व्याख्या ॥
आत्मा के मूल गुण आठ हैं- केवलज्ञान, केवलदर्शन, आत्मिक आनंद, क्षायिक सम्यक्त्व, अटल अवगाहन, अमूर्तत्त्व, अगुरुलघुपर्याय, निराबाध सुख । इनको आवृत करने वाले कर्म क्रमशः ये हैं
१. ज्ञानावरण २. दर्शनावरण ३. वेदनीय ४. मोहनीय ५. आयुष्य ६. नाम ७ गोत्र ८. अंतराय ।
इन कर्मों का सम्पूर्ण विलय होने पर आत्मा के मूल गुण प्रकट होते हैं जब तक ये कर्म रहते हैं, आत्मा जन्ममरण के आवर्त में घूमता रहता है। इनका सर्वधा नाश होने पर आत्मा मुक्त हो जाता है मुक्ति अर्थात् स्वतंत्रता पूर्ण स्वतंत्र अवस्था की अनुभूति विभाव में नहीं होती, वह स्वभाव में होती है। आत्मा स्वभाव से कभी छूटता किन्तु कर्मों के आवरण के कारण वह विभाव में फंसा रहता है। साधना के द्वारा उसके विभाव को नष्ट किया जा सकता है।
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अ. २: सुख-दुःख मीमांसा
ऐसे तो आत्मा के मूल गुण चार हैं :
१. अनंत ज्ञान
३. अनंत चरित्र ४. अनंत बल
२. अनंत दर्शन
इस अनंत चतुष्टयी को आवृत करने वाले कर्मों को घातिकर्म कहा जाता है। वे भी चार हैं :
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१. ज्ञानावरण २. दर्शनावरण
३. मोहनीय ४. अंतराय
इनके संपूर्ण विलय से व्यक्ति वीतराग हो जाता है। उसमें राग-द्वेष आदि दोष नहीं होते। उसका ज्ञान और दर्शन निरावृत हो जाता है। वह तब शुक्ल ध्यान का अधिकारी होता है और अपने आयुष्य कर्म का क्षय होने पर वह पांचों भौतिक शरीरों, से मुक्त होकर सिद्ध और परिनिर्वृत हो जाता है। यही परमात्मा दशा है। यही मोक्ष है।
मेघः प्राह
४५. धार्मिको धर्ममाचिन्वन् सुखमाप्नोति सर्वदा ।
दुष्कृती दुष्कृतं कुर्वन् दुःखमाप्नोति सर्वदा ॥ ४६. न चैष कर्मसिद्धान्तः, लोके संगच्छते क्वचित् । धार्मिकाः दुःखमापन्नाः सुखिनो दुष्कृते रताः ॥ ( युग्मम्)
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मेघ बोला- भगवन्! धार्मिक धर्म करता हुआ सदा सुख पाता है और अधार्मिक अधर्म करता हुआ सदा दुःख पाता है - कर्म का यह सिद्धांत लोक में संगत नहीं है, क्योंकि कहींकहीं धर्म का आचरण करने वाले दुःखी और अधर्म का आचरण करने वाले सुखी देखे जाते हैं।
|| व्याख्या ॥
मेघ का यह तर्क नया नहीं है और व्यावहारिक धरातल पर असंगत भी नहीं है। किन्तु व्यवहार ही सब कुछ नहीं होता। इस दृष्टि से उसकी समझ सही नहीं है और उसको वास्तविक धर्म का अनुभव भी नहीं है। चीन के महान् संत लाओत्से के तीन सूत्र यहां मननीय हैं
पहला सूत्र है - 'सज्जन दुर्जन का गुरु है और दुर्जन सज्जन के लिए सबक है। '
दूसरा सूत्र है - 'जो 'ताओ (धर्म) का परित्याग करता है वह ताओ के अभाव से एकात्मक हो जाता है।'
तीसरा सूत्र है जो सद्गुण आपको आनंद न देता हो वह आपके लिए फोड़ा हो जाता है।'
धर्म और अधर्म के परिणामों की सूक्ष्म झांकी है इनमें ।
'सज्जन दुर्जन का गुरु है पहले सूत्र का यह आधा भाग स्पष्ट बुद्धिगम्य है किन्तु अगला नहीं अगले को समझाने के लिए आपको दुर्जन के भीतर झांकने की जरूरत होगी। दुर्जन व्यक्ति ऊपर से कितना ही हरा-भरा फलाफूला दिखाई दे किन्तु भीतर उसके करुण क्रंदन, व्यथा और पीड़ा का स्वर गूंजता मिलेगा। क्योंकि वह अधर्म के पथ पर है। जो अधर्म में रत है उसे सुख कैसे मिलेगा ? सुख स्वभाव में है, विभाव में नहीं । अनीति भय मुक्त नहीं होती । जहां भय है वहां निःसंदेह संताप है।
२. दूसरे सूत्र में स्पष्ट है कि जो धर्म को छोड़ अधर्म के साथ एक होता है वह कैसे अधर्म के परिणाम से मुक्त हो सकेगा ? अशांति की वर्षा उस पर अनिवार्य है।