________________
आत्मा का दर्शन
१५०
४०. सुखानां लब्धये भूयो, दुःखानां विलयाय च । संगृह्णन् विषयान् प्राज्यान्, सुखैषी दुःखमश्नुते ॥
४१. इन्द्रियार्या इमे सर्वे विरक्तस्य च देहिनः । मनोज्ञत्वाऽमनोज्ञत्वं जनयन्ति न किञ्चन ॥
४२. कामान् संकल्पमानस्य सङ्गो हि तानऽसंकल्पमानस्य, तस्य मूलं
बलवत्तरः । प्रणश्यति ॥
खण्ड - ३
मनुष्य सुख पाने और दुःख से मुक्त होने के लिए प्रचुर विषयों का संग्रह करता है। वह सुख की इच्छा करता है किन्तु विषय-भोग की अति उसे दुःखी बना देती है।
४३. कृतकृत्यो वीतरागः, क्षीणावरणमोहनः । निरन्तरायः शुद्धात्मा, सर्व जानाति पश्यति ॥
इन्द्रियों के ये सारे विषय वीतराग पुरुष में मनोज्ञता वा अमनोज्ञता का भाव किंचित् भी उत्पन्न नहीं करते।
॥ व्याख्या ॥
'सर्वेन्द्रियप्रीतिः कामः ' -जो समस्त इन्द्रियों को आह्लादित करता है वह काम है। मानसिक संकल्प काम (इच्छा) का उत्पादक है। मनु का कथन है कि सब इच्छाएं संकल्प से उत्पन्न होती हैं संकल्प को रोक दो काम रुक जाएगा। कामना का संकल्प न हो इसलिए उसे जानो और संकल्प करो
काम! जानामि ते रूपं, संकल्पात् किल जायसे । नाहं संकल्पयिष्यामि, ततो मे न भविष्यसि ॥
काम! मैं तेरे स्वरूप को जानता हूं। तू संकल्प से उत्पन्न होता है। मैं तेरा संकल्प ही नहीं करूंगा । तब तू मेरे कैसे हो सकेगा ?
क्षये ।
४४. भवोपग्राहिकं कर्म, क्षपयित्वायुषः सर्वदुःखप्रमोक्षं हि मोक्षमेत्यव्ययं शिवम् ॥
जो काम भोगों का संकल्प-विकल्प करता है, उस व्यक्ति की कामासक्ति बलवान् बन जाती है जो काम भोगों का संकल्प-विकल्प नहीं करता, उसकी कामासक्ति का मूल नष्ट हो जाता है।
काम की जड़ को कुरेदने के लिए कितना स्वस्थ संकल्प है।
विष और विषय में अधिक अंतर न होते हुए भी विषय से भी विष अधिक भयंकर है। विष खाने पर व्यक्ति का विनाश करता है और विषय दर्शन से ही विषय का चिंतन संक्रामक रोग है उसका ध्यान करते ही वह चित्त को ग्रसित कर लेता है। आगे बढ़ता बढ़ता वह इतना हानिकारक हो जाता है कि व्यक्तित्व का संपूर्ण विनाश कर देता है। गीता में कहा है- 'हे अर्जुन! मन सहित इन्द्रियों को वश में करके मेरे परायण न होने से मन के द्वारा विषयों का चिंतन होता है। विषयों का चिंतन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है। आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है। कामना में विघ्न पढ़ने से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से अविवेक अर्थात् मूढ भाव उत्पन्न होता है। अविवेक से स्मरण-शक्ति भ्रमित होती जाती है। स्मृति के भ्रमित हो जाने से बुद्धि अर्थात् ज्ञान-शक्ति का नाश हो जाता है। बुद्धि के नाश होने से पुरुष अपने श्रेय साधन से गिर जाता है । '
जिसके ज्ञान, दर्शन के आवरण तथा मोह और अंतराय क्षीण जाते हैं, वह वीतराग कृतकृत्य हो जाता है उसके करणीय शेष नहीं रहते। वह शुद्धात्मा होने के कारण सब तत्त्वों को जानता देखता है।
वह आयुष्य-क्षय के साथ शेष भवोपग्राही कर्मों को क्षीण मोक्ष को प्राप्त होता है, जो सब दुःखों से मुक्त, अव्यय और शिव है।
१. भवोपग्राही कर्म-वर्तमान जीवन को टिकाने में सहायक कर्म वे चार हैं-वेदनीय नाम गोत्र और आयुष्य ।