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________________ संबोधि १४९ अ. २ : सुख-दुःख मीमांसा ३४.विषयेषु विरक्तो यः, स शोकं नाधिगच्छति। जो विषयों से विरक्त होता है, वह शोक को प्राप्त नहीं ___ न लिप्यते भवस्थोपि, भोगैश्च पद्मवज्जलैः॥ होता। वह संसार में रहता हुआ भी पानी में कमल की तरह भोगों से लिप्त नहीं होता। ३५.इन्द्रियार्था मनोर्थाश्च, रागिणो दुःखकारणम्। रागयुक्त मनुष्य के लिए इन्द्रिय और मन के विषय दःख के न ते दुःखं वितन्वन्ति, वीतरागस्य किञ्चन॥ कारण बनते हैं। किन्तु वीतराग को वे किंचित् मात्र भी दुःख नहीं दे सकते। ३६.विकारमविकारञ्च, न भोगा जनयन्त्यमी। तेष्वासक्तो मनुष्यो हि, विकारमधिगच्छति॥ ये भोग-शब्द आदि विषय विकार या अविकार उत्पन्न नहीं करते, किन्तु जो मनुष्य उनमें आसक्त होता है, वह विकार को प्राप्त होता है। जिसका ज्ञान मोह से आच्छन्न है और जिसकी आत्माचेतना विकृत है, वह पढ़ा-लिखा होने पर भी बार-बार क्रोध, मान, माया, लोभ और घृणा के आवेश में चला जाता है। ३७. मोहेन प्रावतो लोको, विकतात्मापि शिक्षितः। क्रोधं मानं तथा मायां, लोभं घृणां मुहुर्ब्रजेत्॥ ॥ व्याख्या ॥ ... मोह के मूल और उत्तर भेद अनेक हैं। मोह के मूल चार हैं १. क्रोध २. मान ३. माया ३. लोभ। प्रत्येक के चार-चार स्तर हैं। क्रोध के चार स्तर१. चिरतम-पत्थर की रेखा के समान। २. चिरतर-मिट्टी की रेखा के समान। ३. चिर-बालू की रेखा के समान। ४. क्षिप्र-पानी की रेखा के समान। मान के चार स्तर१. कठोरतम-पत्थर के स्तंभ के समान। २. कठोरतर-अस्थि के स्तंभ के समान। . ३. कठोर-काष्ठ के स्तंभ के समान। . ४. मदु-लता के स्तंभ के समान। माया के चार स्तर१. वक्रतम-बांस की जड़ के समान। २. वक्रतर-मेंढे के सींग के समान। ३. वक्र चलते बैल की मूत्रधारा के समान। ४. प्रायःऋजु-छिलते बांस की छाल के समान। लोभ के चार स्तर१. गाढ़तर-कृमि-रेशम के समान। २. गाढ़तर-कीचड़ के समान। ३. गाढ़-खंजन के समान। ४. प्रतनु-हल्दी के रंग के समान। मोह के उत्तर भेद-हास्य, रति, अरति, शोक, भय जुगुप्सा आदि। ३८.अरतिञ्च रतिं हास्यं, भयं शोकञ्च मैथुनम्। स्पृशन् भूयोऽपि मूढात्मा, भवेत् कारुण्यभाजनम्॥ जो मूढ़ अरति', रति', हास्य, भय, शोक और मैथुन का पुनः पुनः स्पर्श करता है, वह दया का पात्र बन जाता है। ३९. प्रयोजनानि जायन्ते स्रोतसां वशवर्तिनः। अनिच्छन्नपि दुःखानि, प्रार्थी तत्र निमज्जति॥ ___ जो इन्द्रियों का वशवर्ती है, उसके सामने विभिन्न प्रकार के प्रयोजन-आवश्यकताएं और अपेक्षाएं उत्पन्न होती हैं। वह इन्द्रिय-विषयों का प्रार्थी दुःख को न चाहता हआ भी दुःख में निमग्न हो जाता है। २. असंयम में रमण करना। १.संयम में रमण न करना।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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