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________________ आत्मा का दर्शन १४८ खण्ड-३ el ज्यों-ज्यों त्याग बढ़ता है, त्यों-त्यों तृप्ति बढ़ती है। ज्यों-ज्यों भोग बढ़ता है, अतृप्ति भी उसी अनुपात से बढ़ती जाती है। अतृप्ति अनेक दोषों को उत्पन्न करती है। अतृप्त व्यक्ति का विवेक नष्ट हो जाता है और येनकेन प्रकारेण पदार्थप्रापित के लिए प्रयत्नशील रहता है। इस प्रवृत्ति-बहुलता का कहीं अंत नहीं होता। व्यक्ति इसी आवर्त में प्राण खो बैठता है। 'अतृप्त व्यक्ति चोरी करता है' यह अतृप्ति का परिणाम है। डाका डालना ही चोरी नहीं है, किन्तु शोषण करना, मिलावट करना, दूसरों को ठगना-ये सब चोरी के प्रकार हैं। अतप्त व्यक्ति इन सब दोषों का शिकार बन जाता है। संतुष्ट व्यक्ति इन सबसे अछूता रहता है। तृप्ति और अतृप्ति का केन्द्र मन है। मन संतुष्ट होने पर धनवान् और गरीब का भेद नहीं रहता। भर्तृहरि ने कहा है-'मनसि च परितुष्टे कोऽर्थवान् को दरिद्रः।' एक कवि ने कहा है...... 'गोधन गजधन वाजिधन, और रतन धन खान। जब आवे संतोष धन, सब धन धूलि समान। सबसे बड़ा धन संतोष है-तृप्ति है। ३१.तृष्णया ह्यभिभूतस्य, अतृप्तस्य परिग्रहे। माया मृषा च वर्धते, तत्र दुःखान्न मुच्यते॥ जो तृष्णा से अभिभूत और परिग्रह से अतृप्त होता है, उसके माया और मृषा-दोनों बढ़ते हैं। माया और मृषा के जाल में फंसा हुआ व्यक्ति दुःख से मुक्त नहीं होता। ३२.पूर्व चिन्ता प्रयोगस्य, समये जायते भयम्। पश्चात्तापो विपाके च, मायया अनृतस्य च॥ जो माया और असत्य का आचरण करता है, उसे उनका प्रयोग करने से पहले चिन्ता होती है। प्रयोग करते समय भय और प्रयोग करने के बाद विपाक काल में पश्चात्ताप होता है। ॥ व्याख्या ॥ माया और असत्य-ये दो बड़े दोष हैं। इनके आचरण में साहस और चातुर्य की अपेक्षा रहती है। हर कोई इनका आचरण नहीं कर सकता। जो व्यक्ति इनका आचरण करता है, उसके मन में पहले चिंता उत्पन्न होती है। वह अपने मन में सुनियोजित योजना तैयार करता है कि मुझे वहां किस प्रकार से माया और असत्य का कथन या आचरण करना है। फिर किस प्रकार उन्हें आगे बढ़ाना है; सामने वाले व्यक्ति का कैसे निग्रह करना है, माया और असत्य के कथन को सत्य साबित करने के लिए मुझे कौन-कौन-सी दूसरी माया और असत्य का सहारा लेना है'-आदि-आदि चिंताओं से वह ग्रस्त हो जाता है। जब वह इनका आचरण कर चुकता है तब उसका मन भय से आक्रांत हो जाता है। उसमें यह भय रहता है कि कहीं मेरी माया और असत्य प्रकट न हो जाएं; कहीं मेरी प्रतिष्ठा नष्ट न हो जाए; कहीं मेरा बना-बनाया महल ढह न जाए। इस भय के कारण उसका मन अशांत हो जाता है और वह सुख की नींद सो नहीं सकता। इस प्रकार वह अशांति का शिकार हो जाता है। जब वह अपने आचरण के परिणामों पर दृष्टिपात करता है तब उसका आंतरिक मन, दूसरे के दुःख के कारण, रो पड़ता है और कभी-कभी पश्चात्ताप की आग उसमें भड़क उठती है और वह उसमें तिल-तिल कर जलता है। माया और असत्य मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के परम शत्रु हैं। एक माया और एक असत्य को सिद्ध करने के लिए प्रयोक्ता को हजार माया और हजार असत्य का सहारा लेना होता है। ३३.विषयेषु गतो द्वेष, दुःखमाप्नोति शोकवान्। द्विष्टचित्तो हि दुःखानां, कारणं चिनुते नवम्॥ जो विषयों से द्वेष करता है, वह शोकाकुल होकर दुःखी बन जाता है। द्वेषयुक्त चित्त वाला व्यक्ति दुःख के नए कारणों का संचय करता है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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