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________________ संबोधि १४७ अ. २ : सुख-दुःख मीमांसा २८.विषयेष्वनुरक्तो हि, तदुत्पादनमिच्छति। विषयों में जो अनुरक्त है, वह उनका उत्पादन चाहता है। उनके रक्षणं विनियोगङ्च, भुजंस्तान् प्रति मुह्यति॥ उत्पन्न होने के बाद वह उनकी सुरक्षा चाहता है और सुरक्षित विषयों का उपभोग करता है। इस प्रकार उनका भोग करने वाला एक मूढता के बाद दूसरी मूढता का अर्जन कर लेता है। ॥ व्याख्या ॥ व्यक्ति में पहले पदार्थों के प्रति आकर्षण होता है। आकर्षण से प्रेरित होकर वह उन पदार्थों की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करता है। ज्यों-त्यों उन्हें प्राप्त कर वह उन्हें सरक्षित रखना चाहता है और लंबे समय तक उनका उपभोग की इच्छा करता है। उपभोग से आसक्ति बढ़ती है और पुनः वह इसी प्राप्ति, संरक्षण और उपभोग के आवर्त में फंस जाता है। यह आवर्त तब तक समाप्त नहीं होता जब तक कि व्यक्ति मोह के पाश से छूट नहीं जाता। एक मूढ़ता दूसरी मूढ़ता को जन्म देती है। इस क्रम में व्यक्ति अनंत मूढ़ताओं का शिकार बनकर नष्ट हो जाता है। अर्थ के अर्जन में दुःख है और अर्जित के संरक्षण में और भी अधिक दुःख है। अर्थ आता है तब भी दुःख देता है और जाता है तब भी कष्ट देता है। २९.उत्पादं प्रति नाशो हि. निधिं प्रति तथा व्ययः। उत्पादन के पीछे नाश, संग्रह के पीछे व्यय, क्रिया के पीछे क्रियां प्रतिक्रिया नाम, साशयं लघु धावति॥ अक्रिया-ये प्राकृतिक नियम से जुड़े हुए हैं। ॥ व्याख्या ॥ इस सचाई को समझे बिना व्यक्ति सत्य के प्रति समर्पित नहीं हो सकता। केवल ज्ञान से जान लेना एक बात है और अनुभूति के आधार पर उसे परखना भिन्न बात है। जो केवल जानता है, अनुभूति नहीं रखता, वह सत्य का आस्वादन नहीं कर पाता और न स्वयं को सुरक्षित भी रख पाता है। हमने सुनी है एक घटना। एक घर में चोर घुसे। कुछ आहट से श्रेष्ठी-पत्नी की नींद टूट गई। उसने पति से कहा-'कुछ आवाज आ रही है। लगता है, चोर घर में घुस आये हैं।' श्रेष्ठी ने कहा-'मैं जानता हूं।' चोर जहां खजाना था, वहां पहुंच गये। पत्नी के कहने पर श्रेष्ठी ने 'मैं जानता हूं' कह कर टाल दिया। धन की थैलियां बांध ली और चलने लगे, तब फिर पत्नी ने संकेत किया तो वही उत्तर मिला कि 'मैं जानता हूं'। परिणाम जो आना था वही आया। चोर सबकुछ लेकर चले गए। . उत्पत्ति विनाश से मुक्त नहीं हैं, संग्रह व्यय से शून्य नहीं है और क्रिया विश्राम से खाली नहीं है। केवल जान लेना बंधन से मुक्त नहीं करता। मुक्ति के लिए अंतर्बोध अपेक्षित है। जिस दिन मनुष्य के अंतःकरण में यह बोध हो जाता है, उस दिन उसके कदम शाश्वत की दिशा में स्वतः उठने लग जाते हैं। ३०.अतृप्तो नाम भोगाना, विगमेन विषीदति। अतृप्त व्यक्ति भोगों के विलय से विषाद को प्राप्त होता है ___ अतृप्त्या पीडितो लोक, आदत्तेऽदत्तमुच्छ्रयम्॥ और अतृप्ति से पीड़ित मनुष्य उन्मुक्त भाव से चोरी करता है। ॥ व्याख्या ॥ - व्यक्ति स्वभावतः वर्तमान-द्रष्टा होता है, परिणाम-द्रष्टा नहीं। वह वर्तमान के आधार पर अपने विचार या कार्य को तोलता है, उसके परिणाम को नहीं देखता। जो व्यक्ति परिणाम-द्रष्टा होता है, उसे क्षणिक सुख लुभावने नहीं लगते। उसकी प्रत्येक क्रिया आत्माभिमुखी होती है। उसका प्रत्येक चरण शाश्वत सुख की उपलब्धि की ओर बढ़ता है। ____जो व्यक्ति वर्तमानदर्शी है उसे इन्द्रियजन्य सुख तृप्तिकर लगते हैं। वह उनमें इतना रचा-पचा रहता है कि वे उसे आगे से आगे आकर्षक लगने लगते हैं। इन्द्रियजन्य सुख से तृप्ति नहीं होती, अतृप्ति बढ़ती जाती है। ज्यों-ज्यों विषयों का उपभोग होता है, अतृप्ति की वृद्धि होती है और व्यक्ति उसी में फंसा रह जाता है। तृप्ति वस्तुओं के उपभोग में नहीं, उनके त्याग में है। पदार्थ-त्याग से आसक्ति घटती है और आसक्ति की हानि से अतृप्ति सिमटती जाती है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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