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________________ आत्मा का दर्शन १४६ खण्ड-३ से सम्पर्क साध लेता है, तब बाह्य विषयों के प्रति आसक्ति मिट जाती है। इसलिए साधक विषयों को रोकने का प्रयत्न न करे, किन्तु मन को इतना साधे कि उसमें राग-द्वेष आए ही नहीं। मन को साधने का एक मार्ग है-पर्व मान्यताओं का त्याग। मान्यता का संसार बड़ा विचित्र है। प्रियता और अप्रियता मन की मान्यता ही है। मान्यता को छोड़े बिना यथार्थ ज्ञान नहीं होता। दो चींटियां थीं। एक चीनी के ढेर पर रहती और दूसरी नमक के ढेर पर। एक बार नमक के ढेर पर रहनेवाली चींटी, दूसरी चींटी से मिलने गई। चीनी के ढेर पर रहनेवाली चींटी ने उसका स्वागत किया और चीनी का एक दाना खाने के लिए आग्रह किया। उसने एक दाना खाया और तत्काल बोल उठी-'अरे, यह भी खारा है। चींटी ने कहा-'नहीं, चीनी मीठी होती है, खारी नहीं।' उसने कहा-'नहीं, मेरा मुंह खारा होता जा रहा है।' चीनी के ढेर पर रहनेवाली चींटी ने उसका मुंह देखा तो उसमें नमक का एक छोटा-सा कण दीखा। वह रहस्य को ताड़ गई। उसने कहा-'बहन! पहले इसको बाहर फेंक, तब तुझे चीनी मीठी लगेगी, अन्यथा नहीं। मान्यताओं को छोड़े बिना यथार्थ का ज्ञान नहीं होता। स्व और पर के यथार्थ ज्ञान के अनन्तर जो आचरण होता है वह मान्यता नहीं रहती। मान्यता के अभाव में प्रियता और अप्रियता की कल्पना ही टूट जाती है। २५.विषयेषु यतो मोहस्तेषामुत्पादनं ततः। ततो रक्षणचिन्ता च, सन्नियोगस्ततो भवेत्॥ संग से शब्द आदि विषयों में मोह होता है। मोह के कारण मनुष्य विषयों का उत्पादन करता है, फिर उनके संरक्षण की चिन्ता करता है, फिर उनका उपभोग करता है। २६.भुजतो विषयान् पुंसः प्रतिमोहोऽपि जायते। ततो विषयसंप्राप्तः, महेच्छा प्रस्फुटा भवेत्॥ २७.ततो द्रव्याजन शुद्धेः, विवेकोऽपि विलीयते। विवेके विलयं याते. मनःशान्तिर्विलीयते॥ (युग्मम्) विषयों का उपभोग करने वाले मनुष्य में प्रतिमोह- उनके प्रति फिर मोह पैदा होता है। उससे विषयों को पाने की उत्कट लालसा उत्पन्न हो जाती है। उससे धन के अर्जन में साधन-शुद्धि का विवेक विलीन हो जाता है। विवेक के विलीन होने पर मन की शांति विलीन हो जाती है। ॥ व्याख्या ॥ मृग शब्द-संगान की आसक्ति के कारण, पतंग-शलभ रूपासक्ति के कारण, भंवरां गंधासक्ति के कारण, मछली रसासक्ति के कारण और हाथी स्पर्शासक्ति के कारण बंधन, मृत्यु और पीड़ा को प्राप्त होते हैं। यह सब एक-एक इन्द्रिय की आसक्ति का फल है। जो व्यक्ति पांच इन्द्रियों के उपभोग में लीन होता है उसकी दशा का अनुमान सहज ही किया जा सकता है। मनुष्य के पास इन्द्रियों का विकास है। इस विकास का उपयोग यदि वह विषय-संग में करता है तो वह अभिशाप बन जाता है और यही विकास यदि परम तत्त्व के साथ जुड़ जाता है तो वह अमरत्व प्रदान करने वाला बन जाता है। उपभोक्तावादी संस्कृति का विकास मनुष्य की विषयासक्ति की तृप्ति के लिए न होकर उसकी अभिवृद्धि के लिए हो रहा है। विषयों का संग मोह-मूढ़ता को बढ़ाता है। मूढ़ता के कारण मनुष्य विषयों के उत्पादन, संग्रह, संरक्षण और उपभोग में डूबता है। इतना ही नहीं वह उपभोग में तन्मय बनकर मोह की नई श्रृंखला को निर्मित करता है। अपने हाथों उसमें आबद्ध हो जाता है। पदार्थों-विषयों की महेच्छा उसे धर्म से विमुख कर देती है। अर्थार्जन में शुचिता नहीं रहती। पदार्थ के लिए धन अपेक्षित रहता है। विशुद्ध अर्जन से उनकी पूर्ति नहीं होती तब निन्दनीय, अनाचरणीय, अनैतिक आदि अनेक दूषित वृत्तियों से अर्थ-संग्रह के प्रति प्रेरित होता है। विवेक चेतना विलुप्त हो जाती है और वह आगे-से-आगे तनाव, अशांति का शिकार बनता चला जाता है। मानसिक शांति उससे कोशों दूर चली जाती है। आदमी देख रहा है, अनुभव कर रहा है, फिर भी उस पथ से पीछे नहीं हटता, इससे बड़ी विमूढ़ता ओर क्या हो सकती है? विषयों का संग अशांति का ही जनक है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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