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संबोधि
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अ. २ : सुख-दुःख मीमांसा
॥ व्याख्या ॥ इन्द्रियों के विषय नियत हैं। इन्द्रियां अपने-अपने नियत विषयों को ग्रहण करती हैं। आंखें देख सकती हैं, सुन नहीं सकतीं। कान सुन सकते हैं, देख नहीं सकते। मन भी इन्द्रिय है, किन्तु इसका विषय नियत नहीं है। वह पांचों इन्द्रियों का प्रवर्तक है, इसीलिए वह शक्तिशाली इन्द्रिय है। जैन आगमों में स्थान-स्थान पर मनोविजय पर अधिक बल दिया गया है। वह इसीलिए कि मन को जीत लेने पर पांचों इन्द्रियों पर विजय प्राप्त की जा सकती है।
ब्राह्मण के वेश में आए हुए इन्द्र ने नमि राजर्षि से कहा-'आप अपने शत्रुओं को जीतकर प्रव्रजित हों तो अच्छा रहेगा।' नमि ने कहा-'बाह्य शत्रुओं को जीतने से क्या? जो एक मन को जीत लेता है, वह पांचों इन्द्रियों को जीत लेता है, वह समूचे विश्व पर विजय पा लेता है।' शंकराचार्य से पूछा गया-'जितं जगत् केन'-संसार को जीतनेवाला कौन है? उन्होंने कहा-'मनो हि येन'-जिसने मन को जीत लिया, उसने सारे संसार को जीत लिया। - कबीर ने कहा है- 'मन सागर मनसा लहरी, बूड़े बहुत अचेत।
कहहि कबीर ते बांचि है, जिनके हृदय विवेक॥
मन गोरख मन गोविन्दो, मन ही औच्चड होइ।
___ जो मन राखे जतन करि, तो आपे करता होई॥' चंचल चित्त सागर की ऊर्मियां हैं तो शांत-मन अनंत सागर है। मन पर विजय पाने का एकमात्र सूत्र है-जागरूकता, विवेकी होना। मन जब जागरूक सावधान होता है, तब वह अपनी चंचलता पर नियंत्रण कर लेता है। चंचलता रुकती है, तब मन का चेतना में विलय हो जाता है। वह सचेतन हो उठता है। बाहर भी मनुष्य को मन ले जाता है तो भीतर भी वही ले आता है। हम मन के चंचल पक्ष को ही न पकड़ें, उसके शांत पक्ष पर भी ध्यान दें। साधना का उद्देश्य है मन को शून्य करना।
मन पर विजय पाना कठिन अवश्य है किनतु असंभव नहीं। अभ्यास से यह सध सकता है। मन को इतना खुला भी मत छोड़ो कि वह नियंत्रण के बाहर हो जाए और उसका इतना दमन भी मत करो कि वह और अधिक चंचल बन जाए। उसका ठीक-ठीक नियंत्रण होना आवश्यक है। मन का नियंत्रण साधना-सापेक्ष होता है। प्रतिदिन उसका अभ्यास होना चाहिए। मन गतिशील है। उसको रोका नहीं जा सकता। उसकी गति बदली जा सकती है। जो मन असत् चिंतन या क्रिया में प्रवृत्त होता है, उसे साधना द्वारा सत् चिंतन या सत्क्रिया में प्रवृत्त किया जा सकता है। इसी का नाम है मन पर विजय।
. कामनाओं का उत्स है मोह। मोह की सघनता से कामनाएं बढ़ती हैं। ज्यों-ज्यों मोह क्षीण होता है, कामनाएं क्षीण होती जाती हैं। वीतराग में मोह का पूर्ण विलय हो जाता है। अतः वे कामनाओं से मुक्त होते हैं। २४.न रोर्बु विषयाः शक्याः,
इन्द्रिय-स्रोतों में आने वाले शब्द, रूप, गंध, रस, स्पर्श विशन्तो विषयिव्रजे, आदि विषयों को नहीं रोका जा सकता, किन्तु उनमें होने वाले सङ्गो व्यक्तोऽथवाऽव्यक्तो,
व्यक्त या अव्यक्त संग-मूर्छा अथवा आसक्ति को रोका जा रोधं शक्योस्ति तद्गतः॥ सकता है।
॥ व्याख्या ॥ इन्द्रियां केवल विषयों को ग्रहण करती हैं। विषयों के प्रति मनोजता या अमनोज्ञता पदार्थों में नहीं, मन की आसक्ति में निहित है। जिस व्यक्ति में आसक्ति कम है वह पदार्थों का भोग करता हुआ भी चिकने कर्मों से नहीं,
जब तक शरीर है तब तक इन्द्रियों के विषयों को रोका नहीं जा सकता। कान न सुने, आंख न देखे-यह नहीं होता। सुनकर या देखकर उस पदार्थ के प्रति राग-द्वेष न लाना, यह व्यक्ति की साधना पर निर्भर है। साधना करतेकरते पदार्थों के प्रति आसक्ति मिटाई जा सकती है। साधना का यह फलित है। मन आसक्ति का उत्स है। वह ज्योंज्यों बहिर्मुख होता है, त्यों-त्यों आसक्ति बढ़ती जाती है। अंतर्मुख मन आसक्ति का पार पा लेता है। जब मन आत्मा