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________________ आत्मा का दर्शन १८. कामानुगृद्धिप्रभवं हि दुःखं, सर्वस्य लोकस्य सदेवतस्य । यत् कायिक मानसिकञ्च किञ्चित्, १४४ तस्यान्तमाप्नोति च वीतरागः ॥ || व्याख्या || कामना से जो मुक्त है, वह दुःख से मुक्त है। जो उससे अछूता नहीं है वह दुःख से भी अछूता नहीं है। यह समूचा विश्व उसी से पीड़ित हैं-'काम कामी खलु अयं पुरिसे जो इच्छाओं के वशवर्ती है वह शोक करता है, परिताप करता है और सदा बेचैन रहता है। इससे मुक्त न देवता हैं, न मनुष्य और न पशु मुक्त है केवल वीतराग । राग इच्छा का अभिन्न साथी है। कामना का फंदा स्वतः टूट जाता है जब हम राग से विमुक्त हो जाते हैं। अशाश्वत पदार्थों. में जो अनुराग - प्रेम है वही राग है। शाश्वत सत्य में रति होने पर संसार विनश्वर प्रतीत होने लगता है । फिर साधक किससे प्रेम करे और किससे अप्रेम वह मध्यस्थ हो जाता है। यह मध्यस्थता ही वीतरागता है। १९. मनोज्ञेष्वमनोज्ञेषु, स्रोतसां विषयेषु यः । न रज्यति न च द्वेष्टि, समाधिं सोऽधिगच्छति ॥ २०. अमनोज्ञा द्वेषबीजं, रागबीजं मनोरमाः । द्वयोरपि समः यः स्याद् वीतरागः स उच्यते ॥ मेघः प्राह २१. कानि स्रोतांसि के वा स्युः, कथं तेषां निरोधः स्याद्, विषयाश्च प्रियाप्रियाः ? इति श्रोतुं समुत्सुकः ॥ खण्ड - ३ और जीवों के क्या, देवताओं के भी जो कुछ कायिक और मानसिक दुःख है, वह काम भोगों की सतत अभिलाषा से उत्पन्न होता है। वीतराग उस दुःख का अंत पा जाता है। - २२. स्पर्शा रसास्तथा गन्धा, रूपाणि निनदा इमे । विषया ग्राहकान्येषां इन्द्रियाणि यथाक्रमम् ॥ २३. स्पर्शनं रसनं घ्राणं, घ्राणं चक्षुः श्रोत्रञ्चपञ्चम् । एषां प्रवर्तकं प्राहुः, प्राहुः, सर्वार्थग्रहणं मनः ॥ ( युग्मम्) मनोश और अमनोज्ञ इन्द्रिय-विषयों में जो राग और द्वेष नहीं करता, वह समाधि-मानसिक स्वास्थ्य को प्राप्त होता है। अमनोज्ञ विषय द्वेष के बीज हैं और मनोज्ञ विषय राग के बीज हैं जो दोनों में सम रहता है, राग-द्वेष नहीं करता, वह वीतराग कहलाता है। मेघ बोला- खोत कौन से हैं? प्रिय और अप्रिय विषय क्या हैं? उनका निरोध कैसे हो सकता है? मेरे मन में इन्हें जानने की उत्कंठा है। ॥ व्याख्या || पांच इन्द्रियां स्रोत है। विषयों का प्रवेश इनके द्वारा होता है। विषय स्वयं न अच्छे हैं, न बुरे हैं। वे ग्राहक की मनःस्थिति के कारण अच्छे-बुरे, प्रिय या अप्रिय बनते हैं। प्रिय विषय प्राणी को अपनी ओर आकृष्ट करते हैं और अप्रिय विषय अपने से दूर करते है। प्रियता राग है और अप्रियता द्वेष है। दोनों ही चित्त वृत्ति को चंचल करते हैं, मन को उद्विग्न करते हैं, आत्मा को अपने केन्द्र से विच्युत करते हैं। आत्मस्थ रहने के लिए साधक को कहा जाता है अपने मन को दोनों तरफ मत जाने दो, तटस्थ रहो। तटस्थता समता है, शांति है, और यही है वीतरागता । वीतरागता का अर्थ केवल राग से रहित होना ही नहीं है, द्वेष से भी मुक्त होना है। भगवान् प्राह स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्द-ये पांच हैं और इनको ग्रहण करने वाली क्रमशः ये पांच इन्द्रियां हैं- स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षु और श्रोत्र इन पांच इन्द्रियों का प्रवर्तक और सब विषयों को ग्रहण करने वाला मन होता है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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