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________________ आत्मा का दर्शन १५२ खण्ड-३ ३. तीसरे सूत्र की तुलना हम महावीर के इस सूत्र 'ऐसोऽवि धम्मो विसओवमो'-धर्म भी विष तुल्य हो जाता है-से कर सकते हैं। जो सद्गुण-धर्म का आचरण स्वयं के आनंद के लिए न कर, कुछ पाने के लिए करता है तो वह . 'फोड़ा' (विष) हो जाता है। ___'मलिक बिन दीवान' नाम का एक महान् साधक हुआ है। वह संपन्न था। इच्छा हुई कि मस्जिद का व्यवस्थापक बनूं। सब कुछ छोड़कर मस्जिद में बैठ गया। लोग कहने लगे-'कितना धार्मिक व्यक्ति है। दिन-रात यहीं रहता है। खुदा का दीवाना हो गया है।' एक वर्ष बीत गया, किन्तु किसी ने मस्जिद के व्यवस्थापक बनाने की बात नहीं की। आखिर सोचा-व्यर्थ एक वर्ष खोया। यदि एक वर्ष खुदा के लिए देता तो न मालूम आज कहां होता। मस्जिद छोड़ जैसे ही वह बाहर आने लगा, लोगों ने सर्व सम्मति से व्यवस्थापक बनाने का निर्णय सुनाया। मलिक ने हंसते हुए कहा-'जब मैं बनने को तैयार था तुम नहीं बना रहे थे और अब मैं बनने की इच्छा त्याग चुका हूं तब तुम बनाने को तैयार हो। जाओ, मैं अब वासना छोड़ चुका हूं। जैसे ही उसने वासना छोड़ी वह स्वधर्म में प्रतिष्ठित हो गया। जो सद्गुण फोड़ा था वही अब आनंद बन गया। मनुष्य धर्म नहीं चाहता। वह चाहता है फल। धर्म का फल वस्तुतः भौतिक प्राप्ति नहीं है। उसका वास्तविक परिणाम है-स्वभाव में स्थिति। स्वभाव की स्थापना के लिए धर्म का जहां अभ्यास होता है वहां दीनता, दुःख, असंतोष जैसी वृत्तियों को जीवित रहने का अवकाश कहां रहता है? ____ आत्मा का स्वभाव धर्म है-इस मूल मंत्र को कभी विस्मृत नहीं करना चाहिए। जो स्वभाव के लिए जीता है. मरता है, चलता है, बोलता है, सब क्रियाएं करता है वह कैसे स्वयं में दुःखी हो सकता है ? दूसरों की दृष्टि में बाह्य अभाव से वह पीड़ित हो सकता है, किंतु स्वयं में वह कभी पीड़ित नहीं हो सकता। उसके लिए तो वह अभाव भी धन्यवादाह है। वह किसी भी स्थिति में अप्रसन्न नहीं रहता। उसकी दृष्टि प्रतिक्षण स्वयं के अंतर्दर्शन में निहित रहती है। भगवान् प्राह ४७.धर्माधर्मी पुण्यपापे, अजानन् तत्र मुह्यति। धर्माधर्मों पुण्यपापे, विजानन् नात्र मुह्यति॥ भगवान् ने कहा-जो व्यक्ति धर्म-अधर्म तथा पुण्य-पाप को नहीं जानता, वही इस विषय में भ्रांत होता है। जो इनको जानता है, वह इस विषय में भ्रांत नहीं होता। ४८.द्विधा निरूपितो धर्मः, संवरो निर्जरा तथा। निरोधः संवरस्यात्मा, निर्जरा तु विशोधनम्॥ धर्म की प्रज्ञापना के दो प्रकार हैं-संवर और निर्जरा। संवर का स्वरूप है-असत् और सत् प्रवृत्ति का निरोध। निर्जरा का स्वरूप है-विशोधन, कर्म का क्षय। . ४९.सन्तोसन्तश्च संस्काराः, निरुद्धयन्ते हि सर्वथा। क्षीयन्ते संचिताः पूर्व, धर्मेणैतच्च तत्फलम्॥ संवर धर्म से असत् और सत् संस्कार सर्वथा निरुद्ध होते हैं तथा निर्जरा धर्म से पूर्व संचित संस्कार क्षीण होते हैं। धर्म का यही फल है। ५०.असन्तो नाम संस्काराः, संचीयन्ते नवाः नवाः। अधर्मेणैतदेवास्ति, तत्फलं तत्त्वसम्मतम्॥ अधर्म से नए-नए असत् संस्कारों का संचय होता है। अधर्म का यही तत्त्वसम्मत फल है। ५१.संस्कारान् विलयं नीत्वा, चित्वा तानन्तरात्मनि। क्रियामेतौ प्रकुवति, धर्माधर्मों निरन्तरम्॥ धर्म और अधर्म अंतरात्मा में संस्कारों का विलय और संचय निरंतर करते रहते हैं।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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