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________________ संबोधि अ. २ : सुख-दुःख मीमांसा ५२.पुण्यपापें प्रजायेते, हेतुभूते प्रमुख्यतः। पुण्य मुख्यतः सुख-प्रिय संवेदन की अनुभूति का हेतु बनता . सुखदुःखानुभूत्योश्च, सामग्रयां नैव निश्चितिः॥ है और पाप मुख्यतः दुःख-अप्रिय संवेदन की अनुभूति का हेतु बनता है। पुण्य और पाप सुख-दुःख की साधन-सामग्री में हेतु बनें, यह निश्चित नियम नहीं है। ५३.द्रव्यं क्षेत्र तथा कालः, व्यवस्था बुद्धिपौरुषे। एतानि हेतुतां यान्ति, पुण्यपापोदये ध्रुवम्॥ पुण्य और पाप के उदय में द्रव्य, क्षेत्र, काल, व्यवस्था, बुद्धि और पौरुष-ये निश्चित हेतु बनते हैं। ५४. धार्मिको नार्थसंपन्नः, धनाढ्यः स्यादधार्मिकः। नेति धर्मस्य वैफल्यं, फलं तस्यात्मनि स्थितम्॥ धर्म का आचरण करने वाला व्यक्ति अर्थ-संपन्न नहीं है और धर्म का आचरण न करने वाला अर्थ-संपन्न है, इसमें धर्म की विफलता नहीं है। धर्म का फल है आत्मोदय। वह आत्मा में ही स्थित है। ५५.अनावृतं भवेद् ज्ञानं, दर्शनं स्यादनावृतम्। - प्रस्फुरेद् सहजानंदः, वीर्य स्यादपराजितम्॥ धर्म से ज्ञान और दर्शन अनावृत होते हैं, सहज आनंद स्फुरित होता है और वीर्य अपराजेय होता है। ५६.प्रवर्धते परा शान्तिः , धृतिः संतुलनं क्षमा। धर्म से परम शांति, धृति, संतुलन और क्षमा-ये गुण बढ़ते - फलान्यमूनि धर्मस्य, फलं नस्यास्ति नो धनम्॥ हैं। ये सब धर्म के फल हैं। धन मिलना धर्म का फल नहीं है। (युग्मम्) ॥ व्याख्या ॥ . जैन दर्शन में 'कर्म' शब्द क्रिया वाचक नहीं है। वह आत्मा पर लगे सूक्ष्म पौद्गलिक द्रव्य का वाचक है। आत्मा की प्रत्येक प्रवृत्ति से कर्म का आकर्षण होता है। इसके बाद स्वीकरण और निर्झरण। जब आत्मा समस्त कर्मों से मुक्त हो जाती है, तब वह परम आत्मा बन जाती है। • ' कर्म विषयक पारंपरिक धारणाओं के आधार पर यह माना जाता है कि आत्मिक या पौद्गलिक सभी पदार्थों की प्रामि कर्मों के द्वारा ही होती है। यह धारणा एकांततः सत्य नहीं है। - कर्म आठ हैं : १. ज्ञानावरणकर्म-ज्ञान के आवारक कर्म पुद्गल। २. दर्शनावरणकर्म-सामान्य बोध के आवारक कर्म पुद्गल। ३. वेदनीयकर्म-सुख-दुःख की अनुभूति के निमित्त कर्म पुद्गल । ४. मोहनीयकर्म-आत्मा को मूढ़ या विकृत बनाने वाले कर्म पुद्गल। ५. आयुष्यकर्म-जीवन के निमित्तभूत कर्म पुद्गल। ६. नामकर्म-शरीर संबंधी विविध सामग्री के हेतुभूत कर्म पुद्गल। ७. गोत्रकर्म-सम्मान-असम्मान के हेतुभूत कर्म पुद्गल। ८. अंतरायकर्म-क्रियात्मक शक्ति पर प्रभाव डालने वाले कर्म पुद्गल। इनमें-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय-ये चार कर्म आत्मा के मूल गुणों के आवारक, विकारक और प्रतिरोधक हैं। शेष चार कर्म शुभ-अशुभ पौद्गलिक दशा के निमित्त बनते हैं। ___ सुख-सुविधा की सामग्री की प्राप्ति केवल कर्म से नहीं होती। उनकी प्राप्ति में देश, काल, निमित्त, पुरुषार्थ आदि का भी पूरा योग रहता है। अमुक देश के वासी अशिक्षित हैं। इसका यह तात्पर्य नहीं कि उनमें ज्ञानावरण कर्म का
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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