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आत्मा का दर्शन
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खण्ड-३
क्षय-क्षयोपशम नहीं है। किन्तु कुछ बाह्य परिस्थितियां ऐसी होती हैं कि वे उनके ज्ञान में बाधक बनती हैं। जब वे स्थितियां दूर हो जाती हैं, तब शिक्षा के लिए अनुकूल वातावरण पैदा होता है और शत-प्रतिशत व्यक्ति शिक्षित हो जाते हैं। अतः उनकी शिक्षा में बाह्य निमित्तों का भी पूरा-पूरा महत्त्व है। साम्यवादी देशों में अमुक-अमुक व्यवस्थाओं के कारण समाज की रचना एक भिन्न प्रकार से होती है। वहां उसकी रचना का कारण कर्म-जन्य नहीं हो सकता। वह व्यवस्था जन्य है।
धन की प्राप्ति किसी कर्म से होती है, ऐसा नहीं है। सम्मान, असम्मान की अनुभूति कर्म से हो सकती है और उसमें धन का भाव और अभाव भी निमित्त बन सकता है ।
हम चिलचिलाती धूप में चलते हैं। दुःख का अनुभव होता है। चलते-चलते मार्ग में वृक्ष की छांह में बैठ जाते हैं। वहां सुख का अनुभव होता है दुःख का अनुभव होना असातावेदनीय कर्म का कार्य है और सुख का अनुभव होना सातवेदनीय कर्म का । किन्तु चिलचिलाती धूप या छांह की प्राप्ति किसी कर्म से नहीं होती ।
फलित यह है कि आत्मा की आंतरिक योग्यता के तारतम्य का कारण कर्म है। कर्म के संयोग से आंतरिक योग्यता आवृत या विकृत होती है। बाह्य व्यवस्थाएं या परिस्थितियां कर्म के उदय में निमित्त बन सकती हैं किन्तु वे आत्मा पर सीधा प्रभाव नहीं डाल सकतीं। कर्मों का परिपाक और उदय अपने आप भी होता है और दूसरों के द्वारा भी; सहेतुक भी होता है और निर्हेतुक भी । द्रव्य, क्षेत्र, काल, व्यवस्था, बुद्धि, पौरुष आदि उदयानुकूल सामग्री को पाकर कर्म अपना फल देता है इसीलिए कर्मफल की प्राप्ति में इतनी विविधताएं देखी जाती हैं।
प्रस्तुत श्लोकों में ये प्रश्न उपस्थित किए गए हैं कि
१. धार्मिक दुःखी देखा जाता है और अधार्मिक सुखी ।
२. धार्मिक दरिद्र देखा जाता है और अधार्मिक धनवान् ।
इनका कारण कर्म है या और कोई ? इन प्रश्नों के समाधान में बताया गया है कि धर्म आत्म- गुणों का पोषक है और अधर्म उनका विघातक । उनसे सुख-दुःख की अनुभूति देनेवाले पदार्थों की प्राप्ति नहीं होती। इनकी प्राप्ति में द्रव्य, क्षेत्र आदि की अनुकूलता अपेक्षित होती है। दारिद्र्य और धनाढ्यता का धर्म से कोई संबंध नहीं है। एक अत्यंत दरिद्र रहते हुए भी महान् धार्मिक हो सकता है और एक धनाढ्य होकर भी महान् अधार्मिक हो सकता है धन के अर्जन में धर्म की तरतमता काम नहीं करती। उसके अर्जन में बुद्धि, कौशल, काल, अवसर आदि प्रमुख रहते हैं। धर्म के फल ये हैं-ज्ञान का अनावरण, दर्शन का अनावरण, सहज आनंद की प्राप्ति, अपराजित शक्ति की प्राप्ति, शांति, धृति, संतुलन, क्षमा आदि गुणों की प्राप्ति ।
मेघः प्राह
५७. कथमात्मतुलावादः, भगवंस्तव सम्मतः । भिन्नानि सन्ति कर्माणि कृतानि प्राणिनामिह ।
मेघ ने पूछा-भगवन्! प्राणियों के अपने कृत कर्म भिन्न-भिन्न होते हैं ऐसी स्थिति में आत्मतुलावाद आत्मोपम्यवाद का सिद्धांत आपको सम्मत क्यों है ?
॥ व्याख्या ॥
शुकदेव स्वयं में संदिग्ध थे कि उन्हें आत्मबोध हुआ है या नहीं। वे महाराज जनक के पास पहुंचे। जनक उस समय के बोधि प्राप्त व्यक्तियों में से एक थे। जनक ने पूछा- 'आपने मार्ग में आते हुए क्या देखा ? द्वार पर क्या देखा और यहां क्या देख रहे हैं?' शुकदेव का एक ही उत्तर था मिट्टी के खिलौने।' जनक ने कहा- 'आप अप्राप्स को प्राप्त कर चुके हैं। भेद बाहर है, आकृतियों का है, चेतना में कोई भेद नहीं है।
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महावीर जिस शिखर से मेघ से बात कर रहे हैं, वह मेघ की बुद्धि का स्पर्श कैसे करे? मेघ खड़ा है तलहटी में उसे आत्मतुला का कोई अनुभव नहीं है। जो भेद ही देखता है और भेद में ही जीता है उसे अभेद का दर्शन कैसे हो? जिन्होंने भी शिखर का स्पर्श किया है उन्होंने शिखर की बात की है
'सजा का हाल सुनाये, जजा की बात करे खुदा जिसे मिला हो, वह खुदा की बात करे।'