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आत्मा का दर्शन
पल्हायणिज्जे ।
तए णं सुबुद्धी जेणेव से उदगरयणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयलंसि आसादेइ, आसादेत्ता तं उदगरयणं वण्णेणं उववेयं..... जाणित्ता हट्ट तुट्ठे बहूहिं उदगसंभारणिज्जेहिं दव्वेहिं संभारेइ, संभारेत्ता जियसत्तुस्स रण्णो पाणियघरियं सद्दावेइ, सहावेत्ता एवं वयासी - तुमं णं देवाप्पिया ! इमं उदगरयणं गेण्हाहि, गेण्हित्ता जियसत्तुस्स रण्णो भोयणवेलाए उवणेज्जासि । तए णं से पाणियघरिए सुबुद्धिस्स एयमट्ठ पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता तं उदगरयणं गेण्हs, गेण्हित्ता जियसत्तुस्स रण्णो भोयणवेलाए उवट्ठवे ।
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तणं से जियसत्तू या तं विपुलं असण- पाणखाइम साइमं आसाएमाणे विसाएमाणे परिभाएमाणे परिभुंजेमाणे एवं च णं विहरइ । जिमियत्तत्तरागए वि य णं समाणे आयंते चोक्खे परमसुइभूए तंसि उदगरयणंसि जाय-विम्हए ते बहवे राईसर जाव सत्थवाहपभिइओ एवं वयासी - अहो णं देवाणुप्पिया ! इमे उदगरयणे अच्छे जाव सव्विंदियगाय - पल्हायणिज्जे । तणं ते बहवे राईसर जाव सत्थवाहपभिइओ एवं वयासी–तहेव णं सामी ! जण्णं तुब्भे वयह—इमे उदगरयणे अच्छे जाव सव्वंदियगाय
पल्हायणिज्जे ।
तणं जियसत्तू राया पाणियघरियं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी - एस णं तुमे देवाणुप्पिया ! उदगरयणे कओ आसादिते ?
तए णं से पाणियघरिए जियसत्तुं एवं वयासी - एस णं सामी ! मए उदगरयणे सुबुद्धिस्स अंतियाओ आसादिते ।
तणं जियसत्तू सुबुद्धिं अमच्चं सद्दावेइ, सहावेत्ता एवं वयासी - अहो णं सुबुद्धी ! केणं कारणेणं अहं तव अणिट्ठे अकंते अप्पिए अमणुण्णे अमणामे जेणं तुमं मम कल्ला कल्लिं भोयणवेलाए इमं उदगरयणं न उवट्ठवेसि ? तं एस णं तुमे देवाणुप्पिया ! उदगरयणे कओ उवलद्धे ?
खण्ड - ४
समस्त इन्द्रियों को प्रह्लादित करने वाला हो गया। सुबुद्धि उस उदकरत्न के पास आया। उसे हाथ में ले चखा। उसे वर्ण आदि से युक्त जानकर अत्यन्त प्रसन्न और तुष्ट हुआ। उदक में डालने योग्य अनेक सुगंधित द्रव्यों से उसे सुगंधित किया। राजा जितशत्रु की जलसेवा करनेवाले परिचारक को बुलाकर कहा- देवानुप्रिय ! इस उदकरत्न को लो और भोजन बेला के समय राजा जितशत्रु के समक्ष प्रस्तुत करो ।
जलसेवक ने सुबुद्धि के इस कथन को स्वीकार किया । उदक रत्न लिया और भोजन बेला में राजा जितशत्रु के सामने प्रस्तुत कर दिया।
राजा जितशत्रु ने भोजन किया। भोजनोपरांत चुल्लू करने के बाद उस निर्मल जल के विषय में विस्मित हो ईश्वर, सार्थवाह आदि से कहा- देवानुप्रियो ! यह उदक रत्न निर्मल और समस्त इन्द्रियों को पह्लादित करनेवाला है।
ईश्वर, सार्थवाह आदि ने राजा के कथन का अनुमोदन किया।
राजा जितशत्रु ने जलसेवक को बुलाकर कहा—देवानुप्रिय! तुझे यह उदकरत्न कहां से प्राप्त हुआ?
जलसेवक ने राजा जितशत्रु से कहा - स्वामिन्! मुझे यह उदकरत्न सुबुद्धि के यहां से प्राप्त हुआ ।
राजा जितशत्रु ने सुबुद्धि को बुलाकर कहा - सुबुद्धि ! मैं किस कारण से तुम्हें इतना अप्रिय लगता हूं, जिससे तुम प्रतिदिन मेरे लिए ऐसा उदकरत्न नहीं लाते हो । देवानुप्रिय ! तुम्हें यह उदकरत्न कहां से प्राप्त हुआ ?