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________________ प्रायोगिक दर्शन ६४७ सणं. सुबुद्धी जियसत्तुं एवं वयासी - एस णं सामी ! से फरिहोदए । . तए णं से जियसत्तू सुबुद्धिं एवं वयासी-केणं कारणेणं सुबुद्धी ! एस से फरिहोदए ? तए णं सुबुद्धी जियसत्तुं एवं वयासी - एवं खलु सामी ! तुब्भे तया मम एवमाइक्खमाणस्स भासमाणस्स पण्णवेमाणस्स परूवेमाणस एयमठ्ठे नो सहहह । ....... तं एएणं कारणेणं सामी ! एस से फरिहोदए । माणस्स तए णं जियसत्तू राया सुबुद्धिस्स एवमाइक्खभासमाणस्स पण्णवेमाणस्स परूवेमाणस्स एयमट्ठे नो सद्दहइ नो पत्तियइ नो रोएइ, असद्दहमाणे अपत्तियमाणे अरोएमाणे अब्भिंतरठाणिज्जे पुरिसे सहावेइ, सहावेत्ता एवं वयासी- गच्छह णं तुब्भे देवाप्पिया ! अंतरावणाओ नव घडए पडए य गेण्हह जाव उदगसंभारणिज्जेहिं दव्वेहिं संभारेह । ते वि तहेव संभारेंति, संभारेत्ता जियसत्तुस्स उवणेंति । तणं से जियसत्तू राया तं उदगरयणं करयलंसि आसाएइ, आसाएत्ता आसायणिज्जं सम्बिंदियगायपल्हायणिज्जं जाणित्ता सुबुद्धिं अमच्चं सद्दावेइ, सहावेत्ता एवं वयासी - सुबुद्धी ! एए णं तु संता तच्चा तहिया अवितहा सब्भूया भावा कओ उवलद्धा ? जाव तणं सुबुद्धीजियसत्तुं एवं वयासी - एए णं सामी ! मए संता तच्चा तहिया अवितहा सन्भूया भावा जिणवयणाओ उवलद्धा । तणं जियसत्तू सुबुद्धिं एवं वयासी-तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! तव अंतिए जिणवयणं निसामित्तए । १३. अणादीयं परिण्णाय अणवदग्गं ति वा पुणो । सासयमसासए वा इइ दिट्ठि ण धारए । अ. १५ : अनेकांतवाद सुबुद्धि ने राजा जितशत्रु से कहा - स्वामिन् । यह उसी खाई वाला पानी है। १४. एएहिं दोहिं ठाणेहिं ववहारो ण विज्जई । एएहिं दोहिं ठाणेहिं अणायारं विजाण ॥ राजा जितशत्रु ने सुबुद्धि से कहा - सुबुद्धि ! यह उसी खाई का पानी कैसे हो सकता है ? सुबुद्धि ने राजा जितशत्रु से कहा - स्वामिन्! 'पुद्गलों का परिणमन होता रहता है'- जब आपको मेरे इस कथन पर श्रद्धा नहीं हुई तब मैंने यह सारा प्रयत्न किया । स्वामिन्! इस प्रकार खाई का वह पानी उदकरत्न बन गया। राजा जितशत्रु को सुबुद्धि की बात पर विश्वास नहीं हुआ। उसने अपने अंतरंग सेवकों को बुलाया और कहा- देवानुप्रियो ! तुम जाओ। दुकानों से नए घड़े और नए कपड़े लाओ। यावत् जल को सुगंधित द्रव्यों से सुगंधित करो। सेवकों ने वैसा ही किया और जितशत्रु के सामने उस जल को प्रस्तुत किया। राजा जितशत्रु ने उदकरत्न हाथ में लेकर चखा। उसे सब इन्द्रियों को प्रह्लादित करने वाला जानकर अमात्य सुबुद्धि को बुलाया और कहा- तुमने ये यथार्थ तत्त्व कहां से उपलब्ध किए ? सुबुद्धि ने राजा जितशत्रु से कहा- स्वामिन्! मुझे ये यथार्थ तत्त्व जिनवाणी से उपलब्ध हुए हैं। अनेकान्त और व्यवहार राजा जितशत्रु ने सुबुद्धि से कहा- देवानुप्रिय ! मैं तुम्हारे पास जिनवाणी को सुनना चाहता हूं। इस जगत को अनादि - अनन्त या सादि सांत बतलाया जाता है-ऐसा जानकर यह शाश्वत है या अशाश्वत है - ऐसी दृष्टि को धारण न करे। इन दोनों स्थानों से व्यवहार घटित नहीं होता। इन दोनों स्थानों से अनाचार होता है - ऐसा जाने ।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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