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प्रायोगिक दर्शन
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अ. १५ : अनेकांतवाद
दोनों के लिए विग्रह का वातावरण बना देते हो।
अमात्य सुबुद्धि के मन में संकल्प उत्पन्न हुआ-राजा जितशत्रु को अर्हत् द्वारा कहे हुए सद्भूत (पारमार्थिक) तत्त्वों का ज्ञान नहीं है, अतः मेरे लिए उचित है कि राजा जितशत्रु को अर्हत् द्वारा कहे हुए सद्भूत तत्त्वों का ज्ञान कराऊं। उसने ऐसी संप्रेक्षा की।
तए णं सुबुद्धिस्स इमेयारूवे....संकप्पे समप्पज्जित्था-अहो णं जियसत्तू राया संते तच्चे तहिए अवितहे सब्भूए जिणपण्णत्ते भावे नो उवलभइ। तं सेयं खलु मम जियसत्तुस्स रण्णो संताणं तच्चाणं तहियाणं अवितहाणं सब्भूयाणं जिणपण्णत्ताणं भावाणं अभिगमणट्ठयाए एयमझें उवाइणावेत्तए-एवं संपेहेइ। संपेहेत्ता पच्चइएहिं पुरिसेहिं सद्धिं अंतरावणाओ नवए घडए य पडए य गेण्हइ। संझाकालसमयंसि विरलमणूसंसि निसंतपडिनिसंतंसि जेणेव फरिहोदए तेणेव उवागच्छइ।
संप्रेक्षा कर अपने विश्वस्त पुरुषों द्वारा दुकानों से नए घड़े और नए वस्त्र मंगवाए।
सन्ध्याकाल का समय। जब गमनागमन कम हो गया, स्थान सूना-सा हो गया, तब वह घड़ों और वस्त्रों को लेकर खाई के पास आया।
खाई के पानी को लिया। नए वस्त्रों से छाना। नए घड़ों में भरा। उनमें साजी भस्म डाला और उन्हें सील बंद कर सात दिन-रात के लिए रख दिया।
जल परिवासित हो गया तो दूसरी बार उसे नए कपड़े से छाना। नए घड़ों में भरा। उनमें साजी भस्म डाला और उन्हें सील बंदकर सात दिन-रात के लिए रख दिया।
फरिहोदगं गेण्हावेइ, गेहावित्ता नवएसु पडएसु - गालावेइ, गालावेत्ता नवएसु घडएसु पक्खिवावेइ,
पक्खिवावेत्ता सज्जखारं पक्खिवावेइ, पक्खिवा- वेत्ता लंछिय-मुहिए कारावेइ, कारावेत्ता सत्तरत्तं परिवसावेइ। परिवसावेत्ता दोच्चंपि नवएसु पडएसु गालावेइ, गालावेत्ता नवएसु घडएसु पक्खिवावेइ, पक्खिवा- वेत्ता सज्जखारं पक्खिवावेइ। पक्खिवावेत्ता लंछिय-मुहिए कारावेइ, कारावेत्ता सत्तरत्तं परिवसावेइ। . परिवसावेत्ता तच्चंपि नवएसु पडएसु गालावेइ, गालावेत्ता नवएसु घडएसु पक्खिवावेइ, पक्खिवा- वेत्ता सज्जखारं पक्खिवावेइ, पक्खिवावेत्ता लंछिय-मुहिए कारावेइ, कारावेत्ता सत्तरत्तं संवसावेइ। एवं खलु एएणं उवाएणं अंतरा गालावेमाणे अंतरा पक्खिवावेमाणे अंतरा य संवसावेमाणे सत्तसत्त य राइं दियाइं परिवसावेइ। तए णं से फरिहोदए सत्तमंसि सत्तयंसि परिणममाणंसि उदगरयणे जाए यावि होत्था। अच्छे पत्थे जच्चे तणुए फालियवण्णाभे वण्णेणं उववेए गंधेणं उववेए रसेणं उववेए फासेणं उववेए आसायणिज्जे विसायणिज्जे पीणणिज्जे दीवणिज्जे दप्पणिज्जे मयणिज्जे बिंहणिज्जे सव्विंदियगाय-
तीसरी बार पुनः उसे नए कपड़ों से छाना। नए घड़ों में भरा। उनमें साजी भस्म डाला और उन्हें सील बंद कर सात दिन-रात के लिए रख दिया।
इस प्रकार पानी को छानने, नये घड़ों में भरने और साजी भस्म से परिवासित करने का यह क्रम सात सप्ताह तक चला। __खाई का पानी सातवें सप्ताह में उदक रत्न (श्रेष्ठ उदक) बन गया।
वह निर्मल, आरोग्यवर्धक, उत्तमगुणों से युक्त, हल्का और स्फटिक वर्ण की आभावाला हो गया। शुभ वर्ण, गंध, रस और स्पर्श से युक्त आस्वादनीय, पुष्टिकारक, प्रीतिकारक, दीपनीय, दर्पणीय, मदनीय, बृंहणीय और