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आत्मा का दर्शन
परूवेमाणस्स एयमट्ठ नो आढाइ नो परियाणइ तुसिणीए संचिट्ठर ।
तणं से जियसत्तू राया अण्णया कयाइ ण्हाए आसखंधवरगए महयाभडचडगर- आसवाहिणिआए निज्जायमाणे तस्स फरिहोदयस्स अदूरसामंतेणं वीsaas |
तए णं जियसत्तू राया तस्स फरिहोदगस्स असुभेणं गंधेणं अभिभूए समाणे सएणं उत्तरिज्जगेणं आसगं पिहेइ, पिहेत्ता एगंतं अवक्कमइ । अवक्कमित्ता बहवे ईसर जाव सत्थवाहपभियओ एवं वयासी - अहो णं देवाणुप्पिया ! इमे फरिहोदए अमणुण्णे वण्णेणं अणुणे गंधेण अमणुण्णे रसेणं अमुणुण्णे फासे णं से जहानामए - अहिमडे इ वा जाव अमणामतराए चेव गंधेणं पण्णत्ते ।
तए णं ते बहवे ईसर जाव सत्थवाहपभियओ एवं वयासी - तहेव णं तं सामी ! जं णं तुब्भे वयह।...... तए णं से जियसत्तू राया सुबुद्धिं अमच्चं एवं वयासी - अहो णं सुबुद्धी ! इमे फरिहोदए अमणुण्णे वणं अमणुणे गंधेणं अमणुण्णे रसेणं अमणुण्णे फासेणं ।
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से जहानामए-अहिमडे इ वा जाव अमणामतराए चेव गंधेणं पण्णत्ते ।
तए णं से सुबुद्धी अमच्चे जियसत्तुस्स रण्णो एयमट्ठे नो आढाइ नो परियाणाइ । तुसिणीए संचिट्ठइ ।
तणं से जियसत्तू राया सुबुद्धिं अमच्चं दोच्चंपि तच्चपि एवं वयासी ।
तणं से सुबुद्धी अमच्चे जियसत्तुणा रण्णा दोच्चपि तच्वंपि एवं वृत्ते समाणे एवं वयासी - नो खलु सामी ! अम्हं एयंसि फरिहोदगंसि केह विम् । पओग - वीससा-परिणया वि य णं सामी ! पोग्गला पण्णत्ता ।
तणं जियसत्तू राया सुबुद्धिं अमच्चं एवं वयासीमाणं तुमं देवाणुप्पिया! अप्पाणं च परं च तदुभयं च बहूणि य असम्भावुब्भावणाहिं मिच्छत्ताभिनिवेसेण य वुग्गामाणे वुप्पाएमाणे विहराहि ।
खण्ड - ४
राजा जितशत्रु स्नान कर श्रेष्ठ अश्व स्कंध पर आरूढ़ हो अपने परिवार के साथ खाई में भरे हुए पानी के पास से निकला ।
राजा जितशत्रु उस खाई के पानी की अशुभ गंध से अभिभूत हो अपने उत्तरीय से मुंह ढांक, शीघ्र वहां से आगे बढ़ गया। ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि से कहा- देवानुप्रियो ! इस खाई के पानी का वर्ण, गंध, रस, स्पर्श अमनोज्ञ है। यह सर्प के मृत कलेवर से भी अधिक दुर्गंध मार रहा है।
ईश्वर, सार्थवाह आदि ने कहा - स्वामिन्! इस खाई का पानी वैसा ही है जैसा आप कह रहे हैं।
राजा जितशत्रु ने सुबुद्धि अमात्य से कहा - सुबुद्धि ! इस खाई के पानी का वर्ण, गंध, रस और स्पर्श अमनोज्ञ है।
यह सर्प के मृत कलेवर से भी अधिक दुर्गंध मार रहा है।
सुबुद्धि अमात्य ने राजा जितशत्रु के इस कथन का न आदर किया, न अनुमोदन किया। मौन रहा।
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राजा जितशत्रु ने दूसरी-तीसरी बार भी इसे दोहराया।
राजा जितशत्रु के दूसरी-तीसरी बार ऐसा कहने पर सुबुद्धि ने कहा - स्वामिन्! खाई के इस पानी में हमें कोई विस्मय नहीं है। पुद्गल स्वभाव से और प्रयोग से इस प्रकार बदलते रहते हैं ।
राजा जितशत्रु ने सुबुद्धि अमात्य से कहादेवानुप्रिय ! तुम ऐसा मत कहो। तुम्हारी यह क्या आद हो गई है। तुम अयथार्थ की अभिव्यक्ति और मिथ्या अभिनिवेश के द्वारा स्वयं के लिए, दूसरों के लिए और