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________________ आत्मा का दर्शन ६. गोतम ! पच्चक्खोच्चिय पच्चक्खं च ण सज्झ ७. जं च ण लिंगेहिं समं संगं ससेण व समं ८. सोऽणेगंतो जम्हा • जीवो जं संसयातिविण्णाणं । गहलिंग दरिसणातो ९. छिण्णम्मि संसयम्मी १०. तं पव्वतं सोतुं सो समणो पव्वतो सिलिंगी जो पुरा गहितो । लिंगेहिं समं ण दिट्ठपुव्वो वि । गेोऽणुयो सरीरम्मि ॥ वच्चामि णमाणेमि १३. कम्मे तुह संदेहो ज सुदुक्खं सदेहम्मि ॥ ण लिंगतो तोऽणुमेयो सो ॥ जिणेण जरमरणविप्पमुक्केण । पंचहिं सह खण्डियस एहिं ॥ बितिओ आगच्छति अमरिसेणं । परायिणित्ताण तं समणं ॥ ११. आभट्ठो य जिणं जाइजरामरणविप्पमुक्केणं । णामेण य गोत्तेण य सव्वण्णू सव्वदरिसी णं ॥ १२. किं मण्णे अत्थि कम्मं उदाहुत्थि त्ति संसयो तुज्झं । मण्णसि तं णाणगोयरातीतं । तुह तमणुमाणसाधण भूतमयं फलं जस्स ॥ ९० खण्ड - २ गौतम ! तुम्हें संशयात्मक विज्ञान होता है, इसलिए जीव प्रत्यक्ष है। जो प्रत्यक्ष है वह साध्य नहीं होता जैसे शरीर में होने वाला सुख - दुःख का संवेदन | तुम मानते हो कि जीव को सिद्ध करने वाले हेतु का संबंध (व्यास) प्रत्यक्ष प्रमाण से पूर्व गृहीत नहीं है जैसे खरगोश के साथ सींग का संबंध। इसलिए जीव हेतु के द्वारा अनुमेय नहीं है। पूर्व दृष्ट हेतु के साथ साध्य को देखा हो तभी उस हेतु से साध्य की सिद्धि होती है, यह एकांत नियम नहीं है। हमने ग्रह को हास्य, रुदन आदि हेतुओं के साथ नहीं देखा फिर भी व्यक्ति के शरीर में इन लक्षणों को देख उसका अनुमान किया जाता है। इसी प्रकार साधन के अभाव में भी जीव का अनुमान हो सकता है। जरा और मृत्यु से मुक्त भगवान महावीर की वाणी सुनइन्द्रभूति का संशय छिन्न हो गया। उसने अपने ५०० शिष्यों के साथ भगवान महावीर के पास प्रव्रज्या स्वीकार कर ली। अग्निभू इन्द्रभूति की प्रव्रज्या की बात सुन दूसरा विद्वान अग्निभूति अमर्ष से भर गया । उसने सोचा- मैं जाऊं और महावीर को पराजित कर उन्हें झुका इन्द्रभूति को वापस आऊं । वह महावीर के पास पहुंचा। जन्म, जरा और मरण से मुक्त, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी महावीर ने उसे नाम और गोत्र से संबोधित कर कहा अग्निभूति ! तुम्हारे मन में यह संदेह है कि कर्म है अथवा नहीं? कर्म के विषय में तुम्हें संदेह है। तुम यह मानते हो कि कर्म प्रत्यक्ष आदि किसी ज्ञान का विषय नहीं होता । पर उसका फल अनुभूति का विषय है, इसलिए तुम अनुमान से उसे जान सकते हो।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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