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तीर्थकर और तीर्थप्रवर्तन
वैशाख शुक्ला एकादशी। मध्यमा के बाहर समवसरण। जनसमूह का एक दिशा में गमन। दूसरी ओर सोमिल ब्राह्मण द्वारा यज्ञ का अनुष्ठान। यज्ञ में समागत इन्द्रभूमि के मन में कुतूहल पूर्ण जिज्ञासा-सब लोग यज्ञ को छोड़ कहां जा रहे हैं? महावीर के प्रभाव को कम करने की भावना। अपने शिष्य परिवार के साथ समवसरण में आगमन। महावीर द्वारा रहस्य का उद्घाटन।
गणधर इन्द्रभूति
१. जीवे तुह सदेहो ।
इन्द्रभूति! तुम्हें जीव के अस्तित्व में संदेह है। तुम पच्चक्खं जण्ण घेप्पति घडो व्व। मानतो हो कि घट की भांति उसका प्रत्यक्ष ग्रहण नहीं अच्छतापच्चक्खंच
होता। जो अत्यन्त परोक्ष है उसका आकाश कुसुम की . . पत्थि लोए खपुष्पं व॥ भांति अस्तित्व नहीं होता।
२. जय सोऽणुमाणगम्मो
जम्हा पच्चक्खुपुब्बयं तं पि। - पुव्योवलखसंबंध
सरणतो लिंगलिंगीणं॥
जीव का अस्तित्व अनुमान-गम्य भी नहीं है। क्योंकि अनुमान प्रत्यक्षपूर्वक ही होता है। पहले से जाने हुए सांध्य और साधन की स्मृति व्याप्ति के ज्ञान से होती है।
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३. जयजीवलिंगसंबंध-..
... परिसिणमयू जतो पुणो सरतो। सल्लिंगपरितमातो
जोबो संपचो होजा॥
जीव को प्रमाणित करने वाले हेतु की व्याप्ति पूर्वदृष्ट नहीं है, जिससे कि उसकी स्मृति हो सके। उसके हेतु को देखकर जीव का संप्रत्यय-प्रतीति हो सके।
नाममगम्मो वि ततो ! मिज्जति जंणागमोऽणुमाणातो। गय कासह पचक्यो
जीवो जस्सागमो वयणं॥
आगम प्रमाण से भी जीव की सिद्धि नहीं हो सकती। आगम प्रमाण अनुमान प्रमाण से भिन्न नहीं है। ऐसा कोई आप्त पुरुष नहीं है, जिसने जीव का साक्षात्कार किया हो जिसके आधार पर उसके वचन को आगम माना जा सके।
५. जं चागमा विरुद्धा
परोप्परमतो वि संसओ जुत्तो। . सव्वप्पमाणविसया
तीतो जीवो त्ति तो बच्ची॥
आगम परस्पर विरुद्ध मत का प्रतिपादन करते हैं, इसलिए तुम्हारा जीव के अस्तित्व में संशय होना संभव है। तुम्हारा मत है कि जीव सब प्रमाणों-प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम से अतीत है।