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उद्भव और विकास
९१ . अ. ३ : तीर्थकर और तीर्थप्रवर्तन १४. अत्थि सुह-दुक्खहेतू
अग्निभूति-सुख-दुःख कार्य हैं। उनके हेतु-कारण कज्जातो बीयमंकुरस्सेव। दृष्ट हैं। जैसे अंकुर का हेतु बीज। फिर अदृष्ट कर्म को • सो विट्ठो चेव मती
मानने की क्या आवश्यकता है? महावीर-दृष्टकारण यदि वभिचारातो ण तं जुत्तं॥ अनेकांतिक हो तो अदृष्ट कारण मानना अपेक्षित है।
१५. जो तुल्लसाधणाणं
फले विसेसो ण सो विणा हेतुं। कज्जत्तणतो गोतम!
घडो व्व हेतू य सो कम्मं॥
जिसके साधन समान हों और फल में वैषम्य हो तो वह अहेतुक नहीं है। घट कार्य है। कार्य का कारण अवश्य होता है। तुल्य साधन होने पर भेद नहीं होता। तुल्य साधन होने पर भी कार्य में भेद होता है, उसका हेतु है-कर्म।
१६. बालसरीरं देहेतर
पुव्वं इंदियातिमत्तातो।
बालक का शरीर अन्य शरीर पूर्वक होता है। क्योंकि वह इन्द्रिय आदि से युक्त है। जैसे युवक शरीर बालशरीर पूर्वक होता है, वैसे ही बालक शरीर जिस शरीर पूर्वक होता है. वही है कर्म-कार्मण शरीर।
____ जय बालदेहपुग्यो
पव्वमिह कम्मं॥
१७. छिण्णम्मि संसयम्मी .
जरा और मृत्यु से मुक्त भगवान महावीर की वाणी . . जिणेणं जरमरणविप्पमुक्केण। सुन अग्निभूति का संशय छिन्न हो गया। उसने अपने सो समणो पव्वइतो
५०० शिष्यों के साथ भगवान महावीर के पास प्रव्रज्या पंचहिं सह खंडियसतेहिं॥ स्वीकार कर ली।
गणधर वायुभूति १८. ते पव्वइते सोतुं ततियो आगच्छति जिणसयासे। इन्द्रभूति और अग्निभूति प्रव्रजित हो गए । यह .. वच्चामि गं वंदामी वंदित्ता पज्जुवासामि॥ सुनकर तीसरे पंडित वायुभूति ने सोचा-मैं भी महावीर के
पास जाऊं, वंदना करूं एवं उनकी पर्युपासना करूं।
१५. आभट्ठोय जिणेणंजाइ-जरा-मरणविप्पमुक्केणं।। जन्म, जरा और मृत्यु से मुक्त, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी ___णामेय य गोत्तेण य सव्वण्णू सव्वदरिसी णं॥ महावीर ने उसे आया देख नाम और गोत्र से संबोधित
कर कहा
२० तज्जीवतस्सरीरं ति
संसओ ण वि य पुच्छसे किंची।
वायुभूति! तुम्हारे में यह संशय है कि जो जीव है, वही शरीर है। तुम चाहने पर भी इस संबंध में कुछ पूछ नहीं रहे हो।
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२१. वसुधातिभूतसमुदय-संभूता चेतण त्ति ते संका।
पत्तेयमविट्ठा वि हु मज्जंगमदो व्व समुदाये॥
तुम्हारा यह संशय है कि पृथ्वी, पानी आदि भूत समुदाय से चेतना उत्पन्न होती है। जैसे मद्य के प्रत्येक अवयव-फूल, गुड, पानी आदि से मदशक्ति दिखाई नहीं