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प्रायोगिक दर्शन
४८. दसणरज्जं मुइयं चइत्ताणं मुणी चरे । दसण्णभो निक्खंतो सक्खं सक्केण चोइओ ॥
४९. नमी नमेइ अप्पाणं सक्खं सक्केण चोइओ । चइऊण गेहं वइदेही सामण्णे पज्जुवट्ठिओ ॥
५०. करकंडू कलिंगेसु पंचालेसु य नमी राया विदेहेसु गंधारेसु य
५१. एए नरिंदवसभा निक्खंता जिणसासणे । पुत्ते रज्जे ठवित्ताणं सामण्णे पज्जुवट्ठिया ||
५२. सोवीररायवसभो चेच्चा रज्जं उहायणो पव्वइओ पत्तो
५३. तहेव कासीराया सेओ कामभोगे परिच्चज्ज पहणे
५६. देवा भवित्ताण पुरे भवम्मी
दुम्मुहो ।
नग्गई ॥
५४. तहेव विजओ राया अणट्ठाकित्ति पव्वए । रज्जं तु गुणसमिद्धं पयहित्तु महाजसो ॥
५५. तहेवुग्गं तवं किच्चा अव्वक्खित्तेण चेयसा । महाबालो रायरिसी अद्दाय सिरसा सिरं ॥
पुरे पुराणे सुयारनामे
मुणी चरे । गइमणुत्तरं ॥
सच्चपरक्कमे । कम्ममहावणं ॥
केई चुया एगविमाणवासी ।
५७. सकम्मसेसेण पुराकएणं
खाए समिद्धे सुरलोगरम्मे ॥
निव्विण्णसंसारभया जहाय
कुसु दग्गेसु य ते पसूया ।
जिणिदमग्गं सरणं पवन्ना ॥
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अ. ७ : जिनशासन
साक्षात् शक्र के द्वारा प्रेरित दशार्णभद्र ने दशार्ण देश का प्रमुदित राज्य छोड़कर प्रव्रज्या ली और मुनिधर्म का आचरण किया।
विदेह के अधिपति नमिराज ने, जो गृह को त्याग कर श्रामण्य में उपस्थित हुए और देवेन्द्र ने जिन्हें साक्षात प्रेरित किया, आत्मा को नमा लिया- वे अत्यन्त नम्र बन गए ।
कलिंग में करकण्डु, पांचाल में द्विमुख, विदेह में नमि राजा और गान्धार में नग्गति
राजाओं में वृषभ के समान ये अपने-अपने पुत्रों को राज्य पर स्थापित कर जिनशासन में प्रव्रजित हुए और श्रमण-धर्म में सदा यत्नशील रहे।
सौवीर राजाओं में वृषभ के समान उद्रायण राजा ने राज्य को छोड़कर प्रव्रज्या ली, मुनि-धर्म का आचरण किया और अनुत्तर गति प्राप्त की ।
इसी प्रकार श्रेय और सत्य के लिए पराक्रम करने वाले काशीराज ने काम-भोगों का परित्याग कर कर्मरूपी महावन का उन्मूलन किया।
इसी प्रकार विमल कीर्ति, महायशस्वी विजय राजा ने गुण से समृद्ध राज्य को छोड़कर जिनशासन में प्रव्रज्या ली।
इसी प्रकार अनाकुलचित्त से उग्र तपस्या कर राजर्षि महाबल ने अपना शिर देकर शिर (मोक्ष) को प्राप्त किया।
पूर्वजन्म में देवता होकर एक ही विमान में रहने वाले कुछ जीव देवलोक से च्युत हुए, उस समय इषुकार नाम का एक नगर था - प्राचीन, प्रसिद्ध, समृद्धिशाली और देवलोक के समान ।
उन जीवों के अपने पूर्वकृत पुण्यकर्म शेष थे। फलस्वरूप वे इषुकार नगर के उत्तम कुलों में उत्पन्न हुए। संसार के भय से खिन्न होकर उन्होंने भोगों को छोड़ा और जिनेन्द्र मार्ग की शरण में चले गए।